महाराजा अहिबरन के प्रति बरनवालों की उदासीनता

महाराजा अहिबरन के प्रति बरनवालों की उदासीनता

2023 के महाराजा अहिबरन जन्मोत्सव (बरन) के समय हमने बार बार एक बात कही थी और जो आज भी हम कहते हैं कि हमें महाराजा अहिबरन को उनका यथोचित स्थान उनके द्वारा स्थापित नगर “बरन” में दिलाना है. लेकिन हमने खुद महाराजा अहिबरन को कैसा स्थान दिया है यह एक विचारणीय प्रश्न है.

यह आश्चर्य की बात है कि महासभा के किसी भी शुरूआती अधिवेशन में महाराजा अहिबरन का नाम भी नहीं लिया जाता था. 1929 में महासभा ने सरकार से मांग की थी कि महाराजा अग्रसेन के वंशज होने के नाते बरनवाल भी सेना में सम्मिलित होने का समार्थ्य रखते हैं. 1932 के अधिवेशन में भी सभापति ने सिर्फ महाराजा अग्रसेन का ही जिक्र किया था, महाराजा अहिबरन की  कहीं कोई चर्चा तक नहीं है. 1939 में गोदावरी देवी भी अपने सभापति भाषण में सिर्फ महाराजा अग्रसेन की ही बात करती हैं.

1939 के रक्सौल अधिवेशन में मास्टर भोलानाथ, अजमेर जिन्होंने बरनवाल जाति के इतिहास पर सबसे प्रामाणिक पुस्तक लिखी है, इस बात पर ऐतराज जताया कि बरनवाल अपने जुलूसों में महाराजा अग्रसेन का जयकारा लगाते हैं जबकि महाराजा अग्रसेन अग्रवालों के आदि पुरुष हैं, बरन वालों के आदि पुरुष महाराजा अहिबरन हैं. इसके बावजूद 1955 तक, जहां तक मैंने किताबें पढ़ी हैं, कहीं भी महाराजा अहिबरन का जिक्र नहीं मिलता है सिवाए मास्टर भोलनाथ की 1937 की किताब में. ऐसा प्रतीत होता है कि महाराजा अहिबरन की तस्वीर भी सबसे पहले मास्टर भोलानाथ ने ही बनवायी थी जो उनकी पुस्तक में छपी हुई है.

1944 के बेतिया के रजत जयंती अधिवेशन में भी महासभा अध्यक्ष के नाम के तो जयकारे लगा रहे थे लेकिन महाराजा अहिबरन का कोई नाम लेने वाला भी नहीं था. रजत जयंती अधिवेशन की शोभा यात्रा में भी “महाराजा अग्रसेन” द्वार बनाया गया था, महाराजा अहिबरन द्वार नहीं.

तो इस कन्फ्यूजन का कारण क्या था? दरअसल, 1932 से 1937 तक बरनवाल चंद्रिका के सम्पादक बेचूलाल ने चंद्रिका के एक अंक में “तारीख अजूबा ए रोजगार” नाम की किसी किताब के आधार पर महाराजा अग्रसेन को बरनवालों का आदिपुरुष बता दिया था. आश्चर्य है कि चंद्रिका के सम्पादक और पढ़े लिखे व्यक्ति होने के बावजूद बेचूलाल जी ने कहीं अधिक प्रामाणिक किताबों जैसे एफ एस ग्राउज़ की 1884 में छपी पुस्तक “Bulandshahar, Sketches of an Indian District” को पढ़ने की जरूरत नहीं समझी. मास्टर भोलानाथ और बाद में जगदीश बरनवाल ‘कुंद’, आजमगढ़ ने अपने लेखन से यह सिद्ध कर दिया है कि प्रामाणिक रूप से बरनवालों के आदि पुरुष महाराजा अहिबरन ही हैं.

महाराजा अहिबरन की जयंती मनाने की बातें भी बहुत बाद में चलन में आईं. यह दुखद है कि अपने आदि पुरुष को उनका अधिकार देने में हमने इतना समय लगा दिया। लेकिन इसमें बहुत ज्यादा आश्चर्य की बात भी नहीं है. अभी वंशावली बनाने के आह्वान के बाद मुझे पता चला कि कई बरनवालों को अपने दादा तक नाम भी नहीं पता है. एक सज्जन ने तो यह भी कह दिया कि वंशावली  बना के क्या लाभ मिलना है? शायद अगर पिता का नाम लिखने की जरूरत नहीं हो तो लोग पिता का नाम भी याद नहीं रखना चाहेंगे. तो ऐसे में महाराजा अहिबरन को भूलना कोई बड़ी बात नहीं है. अच्छी बात ये है कि अब समस्त बरनवालों में महाराजा अहिबरन को लेकर जागरूकता और स्वीकार्यता है.

-अतुल कुमार बरनवाल