महासभा के रजत जयंती समारोह की स्मारिका के संपादकीय में श्री प्रेम प्रकाश बरनवाल हजारी प्रसाद द्विवेदी के “नाखून क्यों बढ़ते हैं?” लेख का जिक्र करते हैं और कहते हैं की नख बढ़ना और नख बढ़ाने की सहज प्रवृत्ति मानव की पशुता की निशानी है। और नाखूनों को काटना मनुष्य के मनुष्य होने का प्रमाण। (नाखून बढ़ाने से हजारी प्रसाद द्विवेदी या प्रेम प्रकाश बरनवाल दोनो में से किसी का मतलब नाखून सजा संवार कर रखने वालों को पशु कहने से नहीं था।)

  1. मानव विकास के आरंभिक दिनों में मानव का एकमात्र हथियार बढ़े नख ही थे। लेकिन जैसे जैसे सामाजिक संस्कारों की स्थापना हुई, विकास होते गया, नाखूनों की जरूरत खत्म होते गई। और इस कारण कभी जरूरी होते हुए भी आज नाखून पशुता की निशानी माने जाते हैं। आगे बढ़ते हुए श्री प्रेम प्रकाश बरनवाल का कहना है कि सामाजिक कुरीतियां, विकार भी बढ़े नखों की भांति ही हैं। जिन्हें काट लेना ही हमारी मनुष्यता का प्रमाण है।
  2. बरनवालों ने कैसे नख बढ़ा लिए थे? बरनवालों के ये नख कैसे कटे? इसे समझने के लिए 1905 और उसके बाद हमारे पूर्वजों के विचारों और कार्यकलापों के बारे में जानना जरूरी है. यह गौरतलब है कि आधुनिक शिक्षा के प्रचार प्रसार के कारण पुरानी रूढ़ियों और मान्यताओं के खिलाफ सभी जागरूक लोगों में विचार जागृत हो रहे थे. जहां राजा राम मोहन रॉय जैसे लोगों ने इन रूढ़ियों के खिलाफ बहुत पहले कार्य शुरू कर दिया था, हमारे समुदाय में यह थोड़े समय से हुआ लेकिन फिर भी समुदाय के अग्रणी लोगों ने शुरू से ही एक दूरदर्शिता से कार्य शुरू कर दिया था. यह कार्य दुरूह था क्योंकि जैसा मैंने पिछले लेख “बरनवालों की राष्ट्रीय एकता” में लिखा था, बरनवालों में अलग अलग ग्रुप (जिन्हें गिरोह लिखा गया है) बने हुए थे जिनके आपस में रोटी बेटी के सम्बन्ध भी स्थापित होने में काफी परेशानी थी. तो ऐसे में आधुनिक विचारों को कैसे स्वीकृति दिलाई जाये?
  3. 1905 में महासभा का पहला अधिवेशन हुआ था। चुनौतियां बरनवालों को ढूंढने, साथ लाने और एकजुट करने की थीं। लेकिन साथ ही, आधुनिक शिक्षा, सोच और संस्कारों के संसर्ग से पुरानी कुरीतियों को दूर करने पर भी ध्यान दिया गया था।
  4. आज यह सोचना मुश्किल लगता है लेकिन यह सत्य है की 100 वर्ष पूर्व कन्या क्रय विक्रय, बाल विवाह, वृद्ध विवाह, विधवा विवाह पर प्रतिबंध, वैश्या और भांड नृत्य, कन्या अशिक्षा, महिला परदा प्रथा हमारे समुदाय में भी भली भांति विद्यमान थीं। 1906 के बरन(बुलंदशहर) के दूसरे अधिवेशन में ही विवाह पर अपव्यय, वैश्या नृत्य, बाल विवाह और अशिक्षा को दूर करने के प्रयास करने की बात की गई थी। विवाह के समय कन्या की आयु कम से कम 12 वर्ष और वर की आयु कम से कम 16 वर्ष करने का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। फैजाबाद के 1909 के चतुर्थ अधिवेशन में भी वृद्ध विवाह, बाल विवाह, कन्या क्रय विक्रय बंद करने की बात हुई थी। 1918 के मुंगेर अधिवेशन में दिलीप नारायण सिंह(बरनवाल) ने पुनः कन्या क्रय विक्रय, विवाह में अपव्यय को दूर करने की बात कही थी। इस अधिवेशन में कन्या के विवाह के लिए उम्र 13 वर्ष और वर के लिए 17 वर्ष निर्धारित की गई थी। 1920 में भी इन प्रस्तावों को दोहराया गया। 1922 के गाजीपुर अधिवेशन में कन्या क्रय विक्रय पर जातिच्युत करने का प्रस्ताव भी पारित किया गया था। सबसे ज्यादा विवादित मामला लेकिन विधवा विवाह का था। 1923 में काशी के अधिवेशन में विधवा विवाह पर चर्चा करने से इंकार कर दिया गया क्योंकि ये धार्मिक विषय था। 1925 के मिर्जापुर अधिवेशन में यह तय किया गया कि जिन कन्याओं का जबरन सिंदूर दान किया गया हो उन्हें कुंवारी मान कर उनका पुनर्विवाह किया जाए। 70 महानुभावों ने विधवा विवाह पर चर्चा की मांग की और यह तय हुआ कि यह विषय बरनवाल चंद्रिका में लोगों का मत जानने हेतु छापा जायेगा। साथ ही इस मामले में पंडित दीनदयाल व्याख्यान वाचस्पति, लाहौर और पंडित मदन मोहन मालवीय से शास्त्रीय व्यवस्था मांगी जाएगी जिसके लिए 1925 में एक कमिटी बनाई गई थी। पंडित मदन मोहन मालवीय ने उक्त कमिटी से कहा कि पुनर्विवाह पर बिरादरी के बहुमत से निर्णय लिया जाना चाहिए क्योंकि इस बारे में विद्वानों में मत भिन्नता है। उन्होंने यह भी कहा की विधवा होने के मूल कारण बाल विवाह, वृद्ध विवाह, कन्या क्रय विक्रय पर रोक लगाने की चेष्टा की जानी चाहिए। 1926 में एक पंच वर्षीय विधवा का विषय सामने आया और यह तय किया गया कि उसे 13 वर्ष की उम्र तक पढ़ाया जाए और उसके बाद महासभा में विषय प्रस्तुत किया जाए। 1927 के आजमगढ़ के पंद्रहवें अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया की कार्यकर्ता भ्रमण कर के अक्षत योनि विधवा विवाह का निर्णय करने के लिए लोगों के विचार जानेंगे। इसके लिए 5 समितियां बनाई गईं थीं। विधवा विवाह पर निर्णय अगले अधिवेशन तक टाल दिया गया। 1929 में समुद्र यात्रा, विदेश यात्रा करने वालों के साथ खान पान का संबंध बनाने पर कोई रोक नहीं लगाने का प्रस्ताव पास किया गया। साथ ही बाल विवाह निषेधात्मक शारदा बिल असेंबली में पास करने पर बधाई भी दी गई। साथ ही यह भी तय किया गया कि अगर कोई बंधु बाल विवाह करता है तो महासभा उस पर मुकदमा चलाएगी। साथ ही 1 के बनिस्पत 125 मत से यह प्रस्ताव भी पास किया गया कि विधवा विवाह को आदर्श ना मानते हुए भी निसंतान विधवाओं(अक्षत योनि विधवा पढ़ें) को पुनर्विवाह की अनुमति होगी। लेकिन यह प्रस्ताव इतना क्रांतिकारी था की डर से अगले वर्ष कहीं के भी बंधु अपने यहां अधिवेशन कराने पर राजी नहीं हुए। तब जातिरत्न त्रिवेणी प्रसाद बरनवाल और दो अन्य विद्यार्थियों ने अपने ऊपर भर लेकर काशी में अधिवेशन करवाया। विधवा विवाह के प्रस्ताव का इतना भय था की अधिवेशन का सभापति बनना भी कई लोगों को स्वीकार नहीं था। बड़ी मुश्किल से ही सही लेकिन फिर से विधवा विवाह का प्रस्ताव बहुमत से पास हो गया। विधवा विवाह कार्य संचालक समिति बनाई गई और इस बारे में नियम उपनियम भी बनाए गए। एक ब्रह्मचारी रामानंद जी थे जिन्होंने विधवा विवाह के खिलाफ घूम घूम कर प्रचार किया। लेकिन फिर भी 1930 में अक्षत योनि विधवा विवाह को मान्यता दे दी गई। 1932 में विधवा विवाह करने के कारण जातिच्युत कर दिए गए लोगों को वापस मिला लिया गया और उन्हें 16 आना बरनवाल घोषित दिया गया। मुंगेर के 1941 के अधिवेशन की अध्यक्षता श्रीमती गोदावरी देवी ने की थी. इस समय विधवा विवाह कोश भी स्थापित किया गया लेकिन विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता अभी भी नहीं मिल पाई थी क्योंकि इस समय विधवा विवाह के औचित्य के एक वक्तव्य पर पुनः विवाद उत्पन्न हो गया था।

 

  1. 1931 में बाल विवाह और वृद्ध विवाह पर पुनः रोक लगाने की बात हुई। 1938 में एक स्त्री के रहते दूसरी शादी पर रोक लगाने और 40 वर्ष से अधिक की आयु होने पर स्त्री के देहांत होने पर भी दूसरा विवाह नहीं करने का प्रस्ताव पारित किया गया। शायद पहली बार यह बात भी हुई की बिना उच्च शिक्षा दिए लड़कों की शादी नहीं करनी चाहिए। 1939 में पहली बार महिला सम्मेलन का भी आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन में महासभा के पटल पर श्रीमती गोदावरी देवी बरनवाल का उदय हुआ जिन्होंने दहेज प्रथा, कन्या शिक्षा आदि पर विशेष जोर दिया। 1939 में महासभा का अधिवेशन श्रीमती गोदावरी देवी की अध्यक्षता में हुआ। विधवा विवाह की जांच के लिए तीन सदस्यों की समिति बनाई गई। गोदावरी देवी ने भ्रमण की परंपरा शुरू की जिसमें वो विभिन्न स्थानों पर जा कर बरनवाल समुदाय के लोगों से मिलती थीं। इससे अनेक जगहों पर स्थानीय बरनवाल सभाएं स्थापित हुईं। 1940 के अधिवेशन में अध्यक्ष जातिरत्न श्री त्रिवेणी प्रसाद बरनवाल ने पर्दा प्रथा को हटाने की कोशिश करने की बात की गई। साथ ही यह भी तय हुआ कि विवाह की पूर्व सूचना स्थानीय समिति को देनी होगी ताकि यह जांच की जा सके की कहीं कोई बेमेल विवाह तो नहीं हो रहा है। जब स्त्रियों को सभा में लाने की बात हुई तो कई लोगों ने कहा की अगर स्त्रियों ने खिड़कियों से सभा की ओर देखा भी तो वो उठ कर चले जायेंगे। लेकिन 1947 में महिलाओं के सक्रिय रूप से भाग लेने का आह्वान किया गया। 1950 में दहेज प्रथा के विरुद्ध पिकेटिंग करने का निश्चय किया गया। इसी वर्ष निसंतान विधवा(जो संयुक्त परिवार में नहीं रह रही हो) के द्वारा अपने पति के परिवार के किसी लड़के और ऐसा संभव नहीं होने पर अपने मायके के किसी लड़के और ये भी नहीं होने पर किसी भी बरनवाल लड़के को गोद लेने की अनुमति देने का प्रस्ताव पारित किया गया था।

इन कुरीतियों को दूर करने में सबसे ज्यादा चैलेंज विधवा विवाह के मामले में हुआ था। बाल विवाह, वृद्ध विवाह /बेमेल विवाह, इत्यादि के विषय में ज्यादा विवाद नहीं था, लेकिन विधवा विवाह ज्यादा विवादित था. इसका एक कारण उस समय के विद्वान् नेताओं का मत भी था. जैसे पंडित मदन मोहन मालवीय ने भी विधवा विवाह का समर्थन करने की बजाये इसे  रोकने वाले उपाय करने पर ज्यादा जोर दिया था. लेकिन इन प्रस्तावों को पार्रित करने का यह कदापि मतलब नहीं है की ये कुरीतियां ख़त्म हो गयी थीं. जैसा ऊपर चर्चा से  पता चलता है कि  विधवा विवाह 1941 में भी विवाद का कारण बना हुआ था. इसी प्रकार यह कहना कि  बाल विवाह या बेमेल विवाह ख़त्म हो गया था, गलत होगा. दहेज़ प्रथा तो 1990 के दशक तक विकराल बन चुकी थी जिसके परिणामस्वरूप भ्रूण ह्त्या जैसी समस्याएं भी फण उठा रही थीं. कोई भी सभ्य समाज अपनी स्त्रियों को समानता का दर्जा स्वभावतः देता है. 1905 से इन सुधारों के लिए लगातार कार्य किये गए थे. यह कहना गलत होगा कि इन प्रस्तावों के कारण ही सुधार आये लेकिन समाज में इन सुधारों को मान्यता दिलवाने में समुदाय के अग्रणी लोगों और महासभा की महती भूमिका से इंकार भी नहीं किया जा सकता.

  1. आज तकरीबन हरेक जगह महिला समितियां बनी हुई हैं. लेकिन श्रीमती गोदावरी देवी ने पहली बार 1939 में इसकी शुरुआत की थी. एक और बात कहना अनुचित नहीं होगा की शुरू के वर्षों में सभी अधिवेशन सामाजिक मुद्दों को उठाये जाने के मंच हुआ करते थे. इनमें विवादित मुद्दों पर भी चर्चा कर ली जाती थी, जिसका परिणाम भी निकलता था. समुदाय में नए और पढ़े लिखे लोगों की अग्रणी भूमिका से सुधारों की संभावनाएं बढ़ जाती हैं जिसका उदाहरण जातिरत्न त्रिवेणी प्रसाद बरनवाल और उनकी विद्यार्थी मंडली है जिनके अथक प्रयासों से कई बार विधवा विवाह सम्बन्धी विवादों पर अंकुश लग पाया था.
  2. इन कुरीतियों, इन नखों को काटने के बाद अब समुदाय आधुनिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. जिसे प्रेम प्रकाश बरनवाल जी अधिक नख कट जाने पर दर्द की स्थिति बताते हैं. जैसे पारिवारिक मूल्यों का ह्रास, अश्लीलता, गैर कानूनी और अनैतिक विवाह(जैसे भाई बहनों में विवाह) , अकेलापन और सामाजिक संबंधों में ह्रास और उसके चलते बढ़ता एकाकीपन.
  3. अंतर्जातीय विवाह अवश्यम्भावी हो गए हैं और इसे सामाजिक मान्यता भी स्वतः मिल ही गयी है. लेकिन फिर भी कई पॉकेट्स में इसको लेकर मत भिन्नता है, जैसे क्या अंतर्जातीय विवाह पश्चात लड़की अपने मूल समुदाय से स्वतः निष्काषित मान ली जाएगी? जाती आधारित भेद भाव को रिजेक्ट करते हुए, समुदाय को कैसे सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और राजनैतिक रूप से आगे किया जाये यह आज की सबसे बड़ी चुनौती है. इसी प्रकार धर्म परिवर्तन का पुराना राक्षस पुनः सर उठा रहा है. कभी ये तलवार के बल पर था, आज ये लोभ और प्रलोभन के बल पर हो रहा है. आशा है कि हम एकजुट होकर इन और दूसरी  नयी उठ रही चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम होंगे.

-अतुल कुमार बरनवाल