आज जब हम राष्ट्रीय समारोह/सम्मेलन की बात करते हैं, बिहार, झारखंड, बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और देश के दूसरे प्रांतों से सभी बरनवालों को एक पताका, एक समारोह में आने की बात करते हैं तो हमें इसके इतिहास में जाना भी जरूरी है।

14वीं शताब्दी में जब मुहम्मद तुगलक के आतंक और जबरन धर्म परिवर्तन के कारण बरन वालों को अपना नगर त्यागना पड़ा तो वो पूर्व की तरफ कूच कर गए। चूंकि मुसलमान आक्रमणकारियों का मुख्य आक्रमण शहरों पर होता था इसलिए उन्होंने गांवों को आसरा बनाना ज्यादा मुफीद समझा।

धीरे धीरे एक जगह से दूसरे जगह बरनवाल फैलते गए। उस समय यातायात और डाक के साधन आज की भांति नहीं थे। इसलिए उनमें आपस में संबंध भी धीरे धीरे टूटते गए। कालांतर में नाम में भी फर्क पड़ने लगा। बरनवाल, बनवार, बंदरवाल, बंदरवार, बरैया, बरवार, वर्णवाल, बर्नवाल, मोदी, गर्ग, गोयल, बंसल, पांडे, सिंह, सिन्हा इत्यादि नाम प्रचलन में आ गए। कहने का मतलब है की विभिन्न स्थानों के बरन वालों में नाम और संपर्क दोनो में अंतर आ गया।

फिर ब्रिटिश शासन का आविर्भाव हुआ और सड़क, रेल इत्यादि के साधन सामने आए, डाक की व्यवस्था बनी। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों को असभ्य करार दिए जाने के कारण भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति नया आकर्षण पैदा हुआ और भारतीय विभूतियों ने देश के स्वर्णिम इतिहास की तरफ सबका ध्यानाकर्षण किया। साथ ही अंग्रेजों की जाति आधारित व्यवस्था जिसमें हरेक भारतीय को उसके जाति के साथ पहचान दी गई, जाति के तरफ नया आकर्षण पैदा हुआ। यहां यह बताना जरूरी है कि जातिव्यवस्था भारतीय समाज में पहले से ही थी, लेकिन जैसा समाजशास्त्रियों का विचार है, ये कोई सॉलिड स्ट्रक्चर नहीं था और अक्सर छोटी जातियों को ऊंची जातियों में शामिल किया जाना संभव था। लेकिन जब अंग्रेज भारतीयों पर राज करने के लिए यहां के स्ट्रक्चर को समझना चाहते थे तो उन्होंने प्राकृतिक रूप से ब्राह्मणों और ब्राह्मण टेक्स्ट को आधार बनाया। इस तरह से भारतीय समुदाय को बिल्कुल सॉलिड , कंक्रीट जातियों में विभक्त कर दिया गया। हरेक जाति को जब पता चला कि उन्हें कागजों में ऊंचा और नीचा लिखा जाना है, सभी जातियां अपने आप को ऊंचे से ऊंचा दिखाना चाहती थीं (मैला आंचल में इसकी बानगी आप पाएंगे)। इन कारणों से जातियों ने अपने आपको ज्यादा संगठित करना शुरू किया। यह आश्चर्य नहीं कि ज्यादातर जातीय महासभाएं इसी दौरान बनी थीं। जैसे यादव महासभा का शताब्दी समारोह अभी मनाया जा रहा है।

इस स्थिति में पश्चिम उत्तर प्रदेश के बरन वालों ने सबसे पहले 1881 में मुरादाबाद के जरगांव में एक बैठक की और एक समिति गठित की। मुंशी तोताराम जी, मुरादाबाद ने बरनवाल उपकारक नाम की एक उर्दू पत्र का भी प्रकाशन किया। 1895 में सहारनपुर में चतुर्थ बरनवाल वैश्य सम्मेलन हुआ। लाला लक्ष्मण प्रसाद, जरगांव, लाला विष्णु दयाल और लाला भगवती प्रसाद, बरन, मुंशी दुर्गा प्रसाद, मुरादाबाद ने पूर्व और पश्चिम के बरन वालों से पत्र व्यवहार करना शुरू किया और 1905 में वाराणसी में 26 और 27 दिसंबर को बाबू बासुदेव प्रसाद और बाबू गंगा प्रसाद रईस, रसड़ा, बलिया की कोठी में गौरीशंकर लालजी रईस, रसड़ा की अध्यक्षता में 120 बरन वालों की बैठक हुई। इस बैठक में बदायूं, दलसिंह सराय, हाजीपुर, मुंगेर, रसड़ा, जफराबाद, सहसराव, आजमगढ़, मऊ, बनारस, बरन, संभल, सरायतरीन, मुरादाबाद से बरन वाल शामिल हुए थे। प्रथम बैठक में ही एक नाम बरनवाल नाम प्रयोग में लाने की बात की गई थी। अखिल भारतवर्षीय बरनवाल वैश्य सभा का जन्म भी इसी बैठक में हुआ था।

इसके बाद देश के विभिन्न हिस्सों के बरनवालों को ढूंढने और उन्हें शामिल करने का कार्य शुरू हुआ। इस समय बरनवाल बनना भी मुश्किल कार्य था। महासभा कमीशन नियुक्त करती थी और ये कमीशन जगह जगह जा कर उनके खान पान, आचार विचार, कुल/लकब/अल्ले इत्यादि के बारे में जांच करती थी और फिर अगर सही पाया जाए तभी उनके बरनवाल होने को प्रमाणित करती थी। अक्सर विभिन्न लोगों में किसी एक जगह के बरनवालों को शामिल किए जाने को लेकर विवाद होता रहता था। जैसे दलसिंह सराय के बरनवालों से संबंध को लेकर भारी विवाद था और तलवार और बंदूकें भी तान ली गई थीं। उस समय एक कांसेप्ट था 16 आना, 15 आना, 14 आना। इसका मतलब रक्त की शुद्धता से था। 16 आना बरनवाल असल बरनवाल थे। कई बार महासभा किसी को 15 आना, किसी को 14 आना घोषित कर देती थी। इन विभिन्न जगहों के बरनवालों में आपस में रोटी बेटी का संबंध भी नहीं होता था। इसके लिए भी काफी कोशिश करनी पड़ी थी। शायद 1925 में पूर्व और पश्चिम के बरन वालों में वैवाहिक संबंध शुरू हुए थे। दलसिंह सराय के बरनवालों से रोटी बेटी का संबंध बनाना मुंगेर के बरन वालों को स्वीकार नहीं था। और इसके लिए काफी जद्दो जहद हुई थी। 1920 में पहली बार मुंगेर और दलसिंह सराय के बीच में वैवाहिक संबंध हुए थे। इसी समय तलवारें और बंदूकें तनी थीं। महनार के लोगों को मिलाने के खिलाफ गया वाले थे और 1920 में महनार के बरनवालों को नहीं मिलाया गया था। 1923 में महनार ग्रुप की जांच के लिए जांच कमीशन नियुक्त किया गया था। मालदह ग्रुप, बृजमन गंज के लिए भी इसी समय जांच कमीशन नियुक्त किया गया था। 1925 में मालदह ग्रुप के द्वारा प्रस्तुत प्रमाण बरनवाल चंद्रिका में प्रकाशित किया गया और तीन महीने में कोई ऑब्जेक्शन नहीं आने पर ही उनको शामिल करने की बात की गई थी। इसी वर्ष महनार और बृजमनगंज को शामिल करना स्वीकार किया गया। महनार ग्रुप को शामिल करने की घोषणा करने पर गया के लोगों ने महासभा छोड़ने की बात की और इस कारण से उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया था। और महनार ग्रुप को मिलाने के विरोध में गया, दलसिंह सराय के लोग महासभा से अलग हो गए। यह आश्चर्य है की पहले मुंगेर वाले दलसिंह सराय से संबंध के विरोध में थे, बाद में दलसिंह सराय वाले महनार को मिलाने के विरोध में थे। 1925 में बेतिया ग्रुप की जांच के लिए कमिशन नियुक्त किया गया था।

1927 में बस्ती, जमालपुर, और मालदह के लोग मिलाए गए थे। गोरखपुर के शिवहर्षप्रसाद जी ने जब कहा की वो किसी 15 आना बरनवाल की बारात में शामिल हुए थे तो इससे सभा में खलबली मच गई थी और उन्हें लिखित प्रतिज्ञापत्र और क्षमा याचना मांगनी पड़ गई थी। आजमगढ़ के 14 वर्षीय बालक श्रीरामकुमार को 15 आना बरनवाल के यहां शरण पाने के कारण जाति च्युत कर दिया गया था, उसे 1927 में वापस जाति में मिला लिया गया था। 1928 में चेरकी ग्रुप की जांच के लिए कमीशन नियुक्त हुआ था। इसी वर्ष बनारस के बाबू गया प्रसाद और उनके ग्रुप को उनके प्रार्थना अनुसार मिला लिया गया था। इसी वर्ष लखीमपुर खीरी के लिए भी जांच कमीशन नियुक्त हुआ था और 1937 में लखीमपुर खीरी को मिलाया गया था। 1938 में हजियापुर, गोपालगंज के देवनसाहजी की प्रार्थना पर और ब्रह्मचारी रामानंद की रिपोर्ट पर उनके ग्रुप को मिलाया गया था। इसी वर्ष मिलने के लिए उखवां, पूर्णिया ग्रुप की दरख्वास आई। यह परिपाटी की दरख्वास पर जांच कमीशन नियुक्त किया जाए और उसकी रिपोर्ट के आधार पर शामिल करने की परिपाटी 1967 तक चली जब 1967 के बरन(बुलंदशहर) के अधिवेशन में जब फिर से कमीशन बनाने की बात उठी तो हकीम मुकुट लाल बरनवाल, बरन और स्वागताध्यक्ष ने कहा कि “अपने पिछड़े भाइयों को मिलाने के लिए जांच कैसी? जो अपने आप को बरनवाल कहता है वो मेरा भाई है।” यह प्रस्ताव पास होने के बाद जांच कमीशन इत्यादि की बातें खत्म हो गईं। पूर्ववर्ती बिहार के हजारीबाग, कोडरमा इत्यादि इलाकों के मोदी बरनवालों को लेकर कुछ परेशानी चलती रही लेकिन अब तो रोटी बेटी के संबंधों में शायद ही कोई परेशानी रह गई है। कहने का मतलब है की 1881 से लेकर आज 2023 तक कोई 142 वर्षों में बरन वालों को एक जुट करने में कई चुनौतियां थीं। लेकिन अब सभी हिस्सों के बरनवाल एक और बराबर माने जाते हैं।

शुरू में वैवाहिक संबंध जब पूर्व और पश्चिम में स्थापित हुए तो उन्हीं लोगों के बीच हुए जो “प्रमाणित” बरनवाल थे। इसी कारण मुंगेर जो बिहार में है से पश्चिम उत्तर प्रदेश के संभाल इत्यादि में काफी वैवाहिक संबंध हुआ करते थे। लेकिन अब तो हर जगह के बरनवालों के आपस में वैवाहिक संबंध होना सामान्य बात है। यह जरूर है की अभी भी अपने क्षेत्र में ही वैवाहिक संबंध करने की इच्छा के कारण ऐसे संबंध कम ही नजर आते हैं।

पिछले 142 वर्ष में हम काफी आगे आए हैं। लेकिन इसे और आगे ले जाना अति आवश्यक है वरना क्षेत्रीय भावना परक हो कर टूट होना भी संभव है जो हमारे पूर्वजों की मेहनत पर और दूरदर्शिता पर पानी फेरने के समान होगा।