20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के  बरनवाल समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति

20वीं सदी के पूर्वार्द्ध के बरनवाल समाज में महिलाओं की सामाजिक स्थिति

बरनवाल समुदाय में महिलाओं की सामाजिक स्थिति क्या थी, यह जानने के लिए हमें पुरानी पत्रिकाओं और उस में छपे विभिन्न लोगों के विचार पढ़ने से काफी जानकारी मिलती है।

वस्तुतः यह एक ऐसा इको सिस्टम है जिसे समझने के लिए हमें बरनवालों की सामाजिक स्थिति को समझना जरूरी है। उपयोग में आने वाले कुछ सामान्य शब्दों को हम पहले समझते हैं।

  1. 16/15 आना बरनवाल: इसका संबंध रक्त की शुद्धता से था। 16 आना बरनवाल शुद्ध बरनवाल माने जाते थे। जहां रक्त की शुद्धता कम थी वहां उन्हें 15 आना बरनवाल घोषित कर दिया जाता था। कई जगह मुझे 14 आना बरनवाल भी पढ़ने को मिला है। एक सज्जन ने एक स्थान के बरनवालों के 12 आना बरनवाल होने की बात बताई है। कुल मिलाकर बरनवाल तीन तरह के थे, 16 आना, 15 आना और हरजोतवा। हरजोतवा बरनवाल वो थे जिन्होंने कृषि कार्य/हल को अपना लिया था। यह असंभव बात नहीं थी कि बरन से विस्थापित होने के बाद जब आपस में संचार का और आवागमन का कोई विशेष साधन नहीं था, कई लोगों के संबंध गैर बरनवालों से भी हुए हों। लेकिन इसे बुरा माना जाता था। 15 आना बरनवालों को फरीक दोयम जिसका अर्थ है दूसरे दर्जे के और चांचड़ा भी कहा जाता था । फरीक दोयम से शादी विवाह करना स्वीकार नहीं था। और अगर किसी ने फरीक दोयम से विवाह कर लिया तो ना सिर्फ उसे बल्की उसके सभी सगे संबंधियों को भी फरीक दोयम करार कर दिया जाता था। यही नहीं, किसी फरीक दोयम की शादी में शरीक होने या फिर खाना खाने से भी फरीक दोयम करार दे दिया जाता था। एक तरह से ये एक बहुत ही closely guarded कोटरी(coterie) था जिससे बाहर संपर्क करते ही आप बाहर कर दिए जाते थे। 15 आना बरनवाल लोग तब भी बनते थे जब वो समाज के कई नियमों को नहीं मानते थे जिस स्थिति में उन्हें समाज से बाहर कर दिया जाता था। जैसे विधवा से विवाह कर लेने से लोग 15 आना करार कर दिए जाते थे। अगर कोई 16 आना बरनवाल 15 आना बरनवाल के यहां आश्रय भी पता था तो भी उसे 15 आना करार दिया जाता था। आज के समय इस व्यवस्था को समझना इतना आसान नहीं है जब हम किसी के साथ भी खाने पीने, संबंध रखने के लिए स्वतंत्र हैं। उस समय जाति के रूल इतने स्ट्रिक्ट थे कि आप अगर जाति से निकाल दिए गए तो आपका जीना दूभर हो जाता था। दूसरी जातियों में भी आपका कोई संबंध नहीं हो सकता था क्योंकि वहां भी नियम इतने ही कठोर थे। अपने से निचली जातियों से संबंध करना भी स्वीकार नहीं था क्योंकि सबको “ऊंचा” बनना था। आज के समय कौन 16 आना बरनवाल है और कौन 15 आना, ये भेद खत्म हो गए हैं जैसा उचित भी है। मुद्दे की बात ये है कि जब अपने ही लोगों के साथ इस तरह का व्यवहार संभव था तब दूसरी निचली जातियों के साथ किस तरह का व्यवहार रहता होगा। फरीक दोयम दरअसल जाति का सबसे बड़ा हथियार था व्यवस्था कायम करने का।

2.कन्या क्रय विक्रय: उस वक्त कई लोगों का अपनी कन्या को बेचना और दूसरों के द्वारा कन्या को खरीदना व्यापक रूप से विद्दमान था। कई जगहों में कई लोगों का बकायदे यह व्यापार लिखा गया है1। कई बार बरनवाल कन्या बता कर दूसरी “नीची” जातियों की कन्याओं को भी बरनवालों को बेच दिया जाता था। 1938 में एक कन्या का मूल्य कोई 1000 से 1200 रुपए 2,3 और 2000 रुपए  तक भी था. इस कारण ज्यादा बेटी पैदा होना दुख का कारण नहीं था। कम से कम एक सज्जन ने तो अपनी बहु भी बेच दी थी। एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी अपने भाई को ही बेच दी थी. उनकी बेटी जो पत्नी के साथ भाई के यहां चली गई, को बाद में ये सज्जन मांगने गए. भाई ने बेटी को देने से इंकार कर दिया. नतीजा पंचायत हुई जिसमें फैसला दिया गया की बेटी के 12 वर्ष के होने पर दोनों भाई मिलकर उसका विवाह करेंगे. यह समझने की बात है कि दोनों भाईयों का लगाव बेटी से नहीं बल्कि उसे बेच कर मिलने वाले धन से था.

3.बेमेल विवाह: स्वास्थ संबंधी सुविधाएं उस समय कम ही रही होंगी। बेमेल विवाह कन्या क्रय विक्रय का एक परिणाम भी था। वृद्धावस्था में भी लोग पत्नी के गुजर जाने के बाद कम उम्र की लड़कियों से विवाह कर लेते थे। जिसका नतीजा ये लड़कियां जल्द ही विधवा हो जाती थी।

4.विधवाओं की समस्या: यह ध्यान देने की बात है कि हम वृद्ध विधवाओं की बात नहीं कर रहे हैं। ये युवा विधवाएं थीं। शायद कोई बच्चा भी हो गया हो। लेकिन अक्सर ये अक्षत योनि विधवाएं थीं। जिसका शाब्दिक अर्थ है जिसने यौन संसर्ग नहीं किया हो। लेकिन जिसका व्यवहारिक अर्थ था जिसको कोई बच्चा नहीं हो।

5.बाल विवाह: 3 वर्ष की लड़की, 5 वर्ष का लड़का और उनका विवाह हो जाया करता था। ऐसे में अगर युवावस्था तक आते आते कन्या विधवा हो जाए तो ये विधवाओं की समस्या को जन्म देता था।

 

अब इन सभी बातों का कुल मतलब हम समझने की कोशिश करते हैं। फरीक दोयम जाति का हथियार था लोगों को समाज के नियमों से बांधने का। अगर आप समाज के नियम नहीं मानते तो आपको जाति निकाला दिया जा  सकता था फरीक दोयम करार देकर। लेकिन समाज के नियम कैसे थे? बाल विवाह और बेमेल विवाह के कारण विधवाओं की संख्या अप्रत्याशित रूप से ज्यादा थी। ये विधवाएं अक्सर अक्षत योनी यानि निसंतान थीं। इनसे विवाह कोई कर नहीं सकता था, लेकिन इनके परिवार में रहते अनैतिक संबंध बनने स्वाभाविक हो गए थे। घर में विधवा भाभी, भावज से अनैतिक संबंध और उससे गर्भ ठहरना सामान्य सी बातें हो गई थीं। इससे परिवार के अंदर कलह और परिणामस्वरूप विधवा का और अधिक उत्पीड़न होता था। गर्भ ठहरने से बदनामी से बचने के लिए अक्सर दूसरे शहरों में जाकर गर्भ गिराने का काम करवाया जाता था। अगर विधवा के रहने से घर में कलह बढ़ने लगे तो उन्हें कहीं जाकर बेच देना/छोड़ देना भी सामान्य सी बात थी। आश्चर्य की बात है कि विधवा से अनैतिक संबंध उतना बड़ा अपराध नहीं था लेकिन अगर कोई उससे शादी कर ले तो ये भारी अपराध था। छोड़ दी गई, बेच दी गई विधवाओं के लिए अक्सर अंतिम पड़ाव वेश्यालय होता था। इस्लाम और ईसाइयत तो थी ही इसके लिए1.

“लड़कियों के ऊपर अत्याचार का कॉन्सेप्ट” की बात तो उस समय सोचनी बेकार ही थी. लडकियां साधन मात्र थीं. विधवा विवाह को भी मान्यता इस लिए नहीं दी गयी थी कि ये लड़कियों के मानवाधिकार के खिलाफ था ये बल्कि इसलिए किया गया था कि इससे समाज में  कई समस्याएं जन्म ले रही थीं.

कन्या बेचने का ऐसा खतरनाक प्रचलन था कि कई स्थानों के लोग तो अपनी बेटियों को बेचने के लिए प्रसिद्ध थे। तीन चार बेटी तक हो जाए तो भी वो खुश हो होते थे क्योंकि बेटी बेच कर उन्हें हमेशा पैसे कमाने की उम्मीद होती थी। पिछले 90 वर्षों में हम काफी आगे आ गए हैं। लेकिन आज भी अगर 4 से 5 पीढ़ी पीछे की इंक्वायरी करें तो आपको कोई बेटी खरीदने वाला, विधवा की समस्या वाला प्रकरण मिल ही जायेगा।

बेटी बिक तो रही थी लेकिन खरीद कौन रहा था। समाज के धनी लोग बेटियों को खरीद कर अपनी यौन पिपासा का संधान कर रहे थे। नतीजा गरीब लड़के कुंवारे घूम रहे थे। लेकिन उन्हें विधवाओं से विवाह करने की आजादी नहीं थी। इन सभी समस्याओं का निम्नलिखित परिणाम था

  • लड़कियों का उत्पीड़न, उनका वेश्यालय तक पहुंचना
  • घर में कलह
  • कुंवारे लड़कों की समस्या
  • समाज में व्याप्त व्यविचार

लेकिन इन सब समस्याओं से लड़ना इतना आसान नहीं था। कुछ प्रगतिशील विचारों से संपर्क रखने वाले लोगों ने इन समस्याओं से निबटने के लिए काफी कोशिश की। विधवा विवाह का प्रश्न एक बड़ा प्रश्न था। आज हमें यह बिल्कुल सामान्य सी बात लगती है लेकिन उस समय यह प्रश्न जैसे जीवन मरण का प्रश्न बना हुआ था। जैसे पूरे समाज की शुचिता सिर्फ विधवाओं को विधवा बने रहने देने से ही बची रह सकती थी।

आपने प्रेम रोग फिल्म देखी है? “मैं हूं प्रेम रोगी मेरी दवा तो कराओ, जाओ जाओ जाओ किसी वैद्य को बुलाओ।” ऋषि कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरी की फिल्म एक माइलस्टोन थी जिसने फिल्म निर्माण और सामाजिक सरोकार दोनो में नए प्रतिमान स्थापित किए थे। यह फिल्म वास्तविकता के कितनी नजदीक थी इसे समझने के लिए आपको उस समय की वास्तविक स्थिति को जानना जरूरी है। जो लोग हर पुरानी प्रथा को जस्टिफाई करते हैं और हमेशा अतीत को सुखद मानते हुए उस और लौटने की बातें करते हैं उन्हें भी ख्याली व्हाट्सएप की दुनिया से निकल कर वास्तविकता को जानना जरूरी है।

इतिहास क्यों सुखद होता है? क्योंकि समय के साथ हम दुखदायक बातों को दबा देते हैं, छुपा देते हैं, भूल जाते हैं। यही मानव स्वभाव है। कालांतर में हमें लगता है जैसे अतीत में सबकुछ स्वर्णिम था। मेरा ऐसे में हमेशा यह कहना होता है कि समाज अगर किसी रिवाज को छोड़ कर आगे बढ़ा है तो इसका मतलब है कि पिछली व्यवस्था समाज को कहीं ना कहीं आगे बढ़ने से रोक रही थी। विकासवाद का सिद्धांत भी तो यही कहता है कि जो परंपरा फिटेस्ट होगी वही आगे बढ़ेगी। बाकी की बातें पीछे छूट जाती हैं।

पुरानी चंद्रिकाओं को पढ़ने से विधवा विवाह की भयावहता का अंदाजा लगता है। वृद्ध विवाह, दहेज प्रथा, बाल विवाह और कन्या क्रय विक्रय का नतीजा था विधवा विवाह। जब बूढ़े पुरुष बच्चियों से शादी कर लेते थे खरीद कर या फिर दहेज ना लेने के कारण तो ऐसी बच्चियों की भरी जवानी में विधवा होने की संभावना बढ़ जाती थी। नतीजा 25, 30 वर्ष की आयु में लड़कियां विधवा हो जाती थीं। युवा लड़कियों का विधवा होना समाज में व्यविचार को बढ़ावा दे रहा था। ये युवा विधवाएं अपने ससुराल में ही रहती थीं जहां अक्सर इनका उत्पीड़न उनके देवर, जेठ करते थे। इसमें कभी इनकी सहमति भी हो, इसकी संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। नतीजा घर में व्यविचार बढ़ता था। इससे विधवा महिला गर्भवती भी हो जाती थी। जिसका उपाय था गर्भपात करवाना या फिर उसे दूर ले जाकर बेच देना। बेचने की स्थिति में उनके पास आत्महत्या, वेश्यावृति को अपनाने या फिर धर्म परिवर्तन के अलावा कम ही मार्ग बचते थे। और अगर दबा छुपा कर गर्भपात करवा कर संबंध पूर्व की भांति चलते रहे तो भी विधवा महिला को घर की दूसरी महिलाओं के उत्पीड़न का स्वाभाविक रूप से शिकार होना ही पड़ता था। घर के हर तरह के काम, उलाहना, मार पीट और फिर यौन उत्पीडन ये सब आम बातें हो गई थीं। आज की पीढ़ी को ये बातें अजीब सी लगेंगी लेकिन ये सब आपके हमारे, हम सब के परिवारों में हुआ है।

विधवा विवाह को मान्यता देने का एक कारण और था. अविवाहित  लड़कों  की  समस्या. जब  धनी  व्यक्ति  कम  उम्र की लड़कियों से शादी कर लेते थे, विधुर हो जाने पर फिर से कन्या क्रय कर के फिर से और अधिक कम उम्र की लड़कियों को घर ले आते थे तो निर्धन लड़कों के अविवाहित रहने की संभावना बढ़ जाती थी। आज की सोच से हमें यह सामान्य बात लगेगी कि एक विधुर एक विधवा से विवाह कर ले। लेकिन ऐसा था नहीं। हर उम्र के विधूरों को कुमारी कन्याएं ही चाहिए होती थीं। जिस कारण कन्या क्रय विक्रय भी फल फूल रहा था.

 

रायबहादुर दलिपनारायण सिंह, मुंगेर ने मुझे लगता है कि विधवा विवाह, बाल विवाह उन्मूलन, कन्या क्रय विक्रय उन्मूलन, विवाह पर फिजूलखर्ची के खात्मे पर सबसे ज्यादा काम किया था। उन्होंने सर्व समाज के लिए मुंगेर में एक वनिता आश्रम भी खोला था जिसमें विधवाएं रह सकती थी। लेकिन फिर भी विधवाओं की बुरी स्थिति बहुत बाद जाकर ही दूर हुई। एक व्यक्ति लिखते हैं कि उनका संबंध इनकी विधवा मंझली भाभी से हो गया जिसकी उम्र कोई 25 वर्ष थी जिसके परिणाम स्वरूप वो गर्भवती हो गईं। इन सज्जन ने अपनी विधवा भाभी से विवाह कर लिया नतीजतन इन्हें समाज से बाहर निकाल दिया गया। शायद गर्भ गिरवा देना ज्यादा अच्छा उपाय था।

विधवा विवाह और बेमेल विवाह, बाल विवाह को सामान्य जन में लागू करवाना कितना मुश्किल था  ये मुंगेर की एक कार्यवाई से समझी जा सकती है। 02.07.2023 को मुंगेर की स्थानीय सभा ने एक सज्जन जो 60 वर्ष के थे और जिन्होंने 30 वर्ष की एक विधवा, शेखपुरा की ,से शादी कर ली थी, को लेकर यह फैसला किया कि हांलाकि महासभा ने विधवा विवाह पास कर दिया है फिर भी यह स्थानीय सभा के नियमों के विरुद्ध था। बेमेल विवाह होने के कारण यह महासभा के नियमों के भी विरुद्ध था। महासभा अध्यक्ष दलिपनारायण सिंह के अमेंडमेंट को भी गिरा कर के 44 बनाम 6 वोटों से भागवत बाबू से हर प्रकार का संबंध काटने का दंड दिया गया था।

अच्छी बात ये थी कि विधवा विवाह के स्वीकार होने के बाद उन सभी लोगो को एक सहारा मिल गया जो विधवा विवाह करने के कारण जाति च्युत हो रहे थे. विधवाओं से सम्बन्ध होना अवश्यम्भावी था. जैसा मैंने पहले भी लिखा है, ये अक्षत यौवना, नवयुवतियां थीं, साथ में कुंवारे लड़के भी घूम रहे थे जिनकी शादी होनी मुश्किल हो रही थी. ऐसे में प्राकृतिक रूप से उनके आपस के सम्बन्ध बन जाते थे. अगर वो विवाह कर लें तो जाति निकाला मिल जाता था. इससे समाज की ही हानी हो रही थी. विधवा विवाह को मान्यता देने के अलावा और कोई उपाय बच भी नहीं रहा था.

– अतुल कुमार बरनवाल

नोट: कई सज्जनों ने ऊपर लिखी भूतकाल की सामजिक कुरीतियों के बारे में लिखने पर भारी आपत्ति जताई है. पहली बात तो ये कोई अपने मन से लिखी बात नहीं है बल्की बरनवाल चंद्रिका के रिफरेन्स से लिखी गयी बातें हैं जो उस समय के समाज की स्थिति बतलाती हैं. यह सुख की स्थिति है कि हम इन सभी कुरीतियों को छोड़ कर आगे बढे हैं और इस पर हमें गर्व करना चाहिए. हमारा इतिहास हमेशा ऐसा स्वर्णिम नहीं था जैसा हम सोचते हैं. फिर भी जगहों के नाम हटा दिए गए हैं और रेफेरेंस भी दाल दिया गया है .

  1. बरनवाल चंद्रिका, मार्च, 1939
  2. बरनवाल चंद्रिका, मार्च, 1938, पेज न. 21, पेज न. 15
  3. बरनवाल चंद्रिका, मई, जून, 1938. पेज न. 135