बरन वालों का त्योहार खजुराई/खर्जूराई

बरन वालों का त्योहार खजुराई/खर्जूराई

पुष्पेंद्र बरनवाल लिखते हैं कि खजुराई/खर्जूराई का त्योहार रक्षाबंधन के एक दिन पूर्व परिवार के ज्येष्ठ पुत्र द्वारा अपने पूर्वजों का याद कर के जौ के पौधे में पानी देकर मनाया जाता है। उनके अनुसार ये पर्व सिर्फ बरनवालों द्वारा ही मनाया जाता है।

यह पढ़ने के बाद मैंने कई स्थानों पर इस पर्व के बारे में पता किया। ज्यादातर जगह कोई जानकारी नहीं मिली। लेकिन फिर चंपारण, देवरिया और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के परिवारों से कुछ जानकारी मिली। देवरिया, चंपारण में सप्तमी/सतमी के नाम से एक पर्व मनाया जाता है जिसमें कुल देवता/पूर्वजों की पूजा की जाती है। यह पर्व भी रक्षा बंधन से कुछ दिन पहले ही मनाया जाता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संभल, बहजोई इत्यादि में तो यह खजुराई/खर्जूराई के नाम से ही मनाया जाता है। देश के तीन बिल्कुल अलग अलग भागों में तकरीबन एक ही समय में त्योहार मनाए जाने से यह प्रतीत होता है कि खजुराई/खर्जूराई सभी बरनवालों द्वारा मनाया जाता रहा होगा। धीरे धीरे इसे मनाने का रिवाज खत्म हो गया होगा। लेकिन अभी भी कुछ परिवारों में यह परंपरा कायम है, कई बार कुछ बदलाव के साथ।

पुष्पेंद्र बरनवाल के अनुसार अयोध्या से दूर पूर्व में वैखानस जीवन बिताते हरिशचंद्र* प्रजापति के अनुयाइयों और वंशजों की पृथक समाज के रूप में स्थापना होते ही अयोध्या पर हैहय, तालजंघों, वीतिहोत्रों का आक्रमण हो गया जिन्होंने अयोध्या नरेश बाहु को निष्कासित कर दिया जो सुदूर पश्चिम में असुर मूल के वरुण वंशज और्व ऋषि की देव भूमि में शरणागत हुआ। खर्जूर के देश में बाहु को सगर नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई। वरण (बरन) जन ने सगर के जीवन में सहयोग किया था और अयोध्या वापस प्राप्ति में सहयोग किया था जिसकी स्मृति स्वरूप बरनवाल अभी भी खजुराई/खर्जूराई(खजूर के देश की यात्रा) का पर्व मनाते हैं। इस पर्व में हर बरनवाल परिवार का ज्येष्ठ पुत्र दिन भर निर्जल रह कर यव पौधों(जौ) को जल प्रदान करते हुए अपने पूर्वजों के नाम का स्मरण करते हुए जागृत होने का आह्वान करता है। वंशकर और उसके नामों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने की यह प्रथा सिर्फ बरनवाल समाज में ही विद्यमान है।

(सम्राट मांधाता के वंशज थे हरिश्चंद्र प्रजापति जिनके वंशज थे रोहिताश्व जिन्हें रस्तोगी समाज अपना पूर्वज मानते हैं)

-अतुल कुमार बरनवाल