“बरन” यानी बुलंदशहर

“बरन” यानी बुलंदशहर

दिल्ली से तकरीबन 80 किमी दूर है उत्तर प्रदेश का बुलन्दशहर। बुलन्दशहर वैसे तो अब दिल्ली NCR के अंदर आता है और योगी सरकार के नए औद्योगिक बेल्ट की घोषणा के बाद आजकल जमीनों के दाम भी आसमान छू रहे हैं, लेकिन इसका इतिहास इंद्रप्रस्थ और पाटलिपुत्र से कम स्वर्णिम नहीं रहा है, ना ही ये सोमनाथ और काशी से कम दुःखद है लेकिन इतिहास के चक्र में इसकी स्मृतियां खुद विस्मृत होती गईं हैं, जिस कारण इसे इतिहास के प्रति वो न्याय अभी तक नहीं मिल पाया है जो काशी, प्रयागराज और दूसरे शहरों को मिल गया है।

  1. बुलंदशहर के मुख्य नुमाइश ग्राउंड के बैरन हॉल के सामने वर्ष 2008 में एक शिलापट जिला प्रशासन ने लगाया जिसके अनुसार इस शहर की स्थापना (महा)राजा अहिबरन ने की थी जब इसका नाम बरन हुआ करता था। मध्यकाल में इसका नाम बुलंदशहर कर दिया गया था। बरन के बरन बनने और बरन के फिर बुलंदशहर बनने की कहानी दर्दनाक और पलायन के असंख्य दुख से भरी हुई है। लेकिन शुरुआत हमेशा आरंभ से।
  2. महाभारत काल में वरणावत प्रदेश का जिक्र है, जहां के आहार में था पांडवों का प्रसिद्ध लाक्षागृह जिससे बच कर पांडव भागे थे। ये वही प्रदेश है। महाभारत के बाद राजा परीक्षित को नागदंश का बदला लेने के लिए किया गया जन्मेजय का नाग यज्ञ भी इसी प्रदेश में किया गया था। इसके बाद राजा परमाल के समय में यहां वन को काट कर के बनछटी नामका एक कस्बा बसाया गया जिसे उनके बाद के महाराजा अहिबरन ने एक नगर के समान बड़ा किया और नाम दिया “बरन”। आजकल बुलंदशहर की अति प्रदूषित काली(कालिंदी) नदी उस समय वर्णावती नदी के नाम से जानी जाती थी। महाराजा अहिबरन के होने के संबंध में बुलंदशहर के अंग्रेज जिलाधीश एफ एस ग्राउज ने कुछ संदेह व्यक्त किया था। उनके अनुसार शायद इस नाम का कोई राजा था ही नहीं, बल्कि अहार और बरन दोनो पर शासन करने के कारण किसी राजा ने अहिबरन की उपाधि ले ली थी। अगर ऐसा भी मानें तो भी महाराजा अहिबरन के होने पर कोई संदेह नहीं रहता है। लेकिन अन्य स्रोतों में महाराजा अहिबरन के होने के बारे में कई बार चर्चा है। जैसे सूचना विभाग, उ प्र से प्रकाशित पुस्तिका प्रगति के बढ़ते चरण:बुलंदशहर में भी इस बात का जिक्र है कि राजा अहिबरन ने यहां बरन नाम का नगर बसाया था। बुलन्दशहर जिले की आधिकारिक वेबसाइट भी बुलंदशहर के संस्थापक के रूप में महाराजा अहिबरन का ही नाम बतलाती है। जनश्रुतियों में तो महाराजा अहिबरन की चर्चा हर जगह है ही।
  3. महाराजा अहिबरन को यौधेय वंशी भी माना जाता है। राहुल संकृत्ययायन ने अपनी पुस्तक जय यौधेय में यौधेय गण की चर्चा की है। करीब चौथी शताब्दी तक बचे रहने वाले और आजकल के पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि क्षेत्रों में फैले इस गण को आयुधजीवी गण कहा गया है, जिनके लिए वीरता परम धर्म था। यह तय है कि अगर बरन की स्थापना पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई थी तो उनका यौधेयो से सीधा सीधा नाता है। राहुल सांकृत्यायन बरन से निकले बरनवालों को जो खुद को महाराजा अहिबरन के वंशज मानते हैं, यौधेयों की संतानें कहते हैं।
  4. बुलंदशहर या तब के बरन पर महाराजा अहिबरन के वंशजों का शासन तकरीबन 997 ईस्वी तक चला। 997 ईस्वी में बरन पर राजा रुद्रपाल का शासन था जब अलीगढ़ के राजा हरदत्त डोर ने इस पर आक्रमण करके कब्जा कर लिया। लेकिन इसके तुरंत बाद महमूद गजनवी के हमले शुरू हो गए। सन 1018 में गजनवी ने बरन पर हमला किया। बरन एक समृद्ध राज्य हुआ करता था और गजनवी का मूल उद्देश्य लूट पाट करना था। गजनवी के लौटने के बाद डोर वंशियों का शासन बरन पर चलता रहा। फिर मुहम्मद गोरी ने इसकी तरफ अपनी नजरें की। पृथ्वीराज चौहान के जीवित रहते तो बरन सुरक्षित रहा क्योंकि इसे पृथ्वीराज से मदद मिलती रही। लेकिन 1191 में पृथ्वीराज चौहान की हार के पश्चात, गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने बरन पर हमला किया और वहां गोरी के एक मुस्लिम मित्र को गवर्नर बना दिया। बरन के बासिंदों पर अलसी कहर मुहम्मद तुगलक के समय आया जब सन 1330 ईस्वी में तुगलक का आक्रमण हुआ। तुगलक पिछले आक्रमणकारियों की तरह लूट पाट तक सीमित रहने को तैयार नहीं था।   बल्कि  वह लोगों  पर इस्लाम थोपना चाहता था। अपने धर्म की रक्षा में बरन के बासिंदों से तुगलक को विरोध का सामना करना पड़ा जिसके बाद शहर में सामूहिक कत्लेआम हुआ. शहर के मुख्य लोगों को मारकर किले के कंगूरों से लटका दिया गया। इस अत्याचार से कुछ लोग टूट कर मुसलमान बनने को मजबूर हो गए, जो बच गए वो बरन से पलायन करने को मजबूर हो गए। बरन से निकल पूर्व की दिशा में गए ये लोग बरनवाल के नाम से जाने जाते हैं। बुलंदशहर के मुस्लिम बन गए लोग बरनी मुस्लिम के नाम से जाने जाते हैं जिनके नामों के बोर्ड बुलंदशहर में बहुतायत में मिलेंगे। प्रसिद्द इतिहासकार ज़िआउद्दीन बरनी भी बरन का ही बाशिंदा था।
  5. ग्राउज बुलंदशहर का नाम बरन किये जाने के पक्षधर थे। 1824 में बुलंदशहर जनपद का गठन हुआ जिसका मुख्यालय बरन को बनाया गया. 1884 में ग्राउज ने अपनी पुस्तक “Bulandshahar, Sketches of an Indian District, Social, Historical and Architectural” में बुलंदशहर का नाम बरन नहीं किये जाने पर खेद व्यक्त करते हुए लिखा था जब इस प्राचीन ऐतिहासिक स्थान को मुख्यालय स्वीकार किया गया तो इसके प्राचीन ऐतिहासिक नाम बरन को नहीं अपनाया गया. स्पष्टतः बुलंदशहर का यह नाम औरंगजेब के शासन में इसे दिया गया जबकि सत्ताशक्ति इस सनक से ग्रस्त थी कि हर उस नाम को मिटा दिया जाये जो पुराने राज्य की यादें ताज़ा करती हों. मथुरा और वृन्दावन जैसे बड़े नगरों में भी ये प्रयोग किये गए लेकिन यहां स्थानों के नाम जब भावनाओं में इस गहराई तक जड़ें जमाये हुए थे कि वहाँ के लोगों ने साम्राज्यवादी नशे के दमन को स्वीकार नहीं किया, लेकिन बरन जैसे छोटे स्थान में जहां आबादी का अधिकांश हिस्सा मुस्लिम हो, वहाँ शासकीय भावनानों को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं हुई।.” उनका मानना था कि बुलंदशहर का नाम बरन किए जाने में कोई विशेष परेशानी नहीं आने वाली है क्योंकि आमजन में अभी भी यही नाम जबान पर चढ़ा हुआ है।
  6. आज भी बुलन्दशहर में जमीनों के पट्टों में, रजिस्ट्रियों में कस्बा बरन लिखने का प्रचलन है। मध्यकाल में मुगल शासकों के समय बरन का नाम जबरदस्ती बुलंदशहर कर दिया गया था ताकि इसकी सनातनी विरासत का नाम ओ निशान तक मिटा दिया जा सके। जबकि इलाहाबाद को प्रयागराज किया जा सकता है, बनारस को वाराणसी किया जा सकता है, मद्रास को चेन्नई किया जा सकता है तो बुलंदशहर को वापस उसका असल नाम क्यों नहीं दिया जा सकता। ये इस पुरातन शहर के साथ आज की पीढ़ी का सबसे बड़ा न्याय होगा।

 

-अतुल कुमार बरनवाल