बरनवालों के इतिहास पर शोध की आवश्यकता

बरनवालों के इतिहास पर शोध की आवश्यकता

अग्रवालों ने भारतेंदु हरिश्चंद्र को शायद रू 500/ दिए थे अग्रवालों के इतिहास पर लिखने के लिए। 1871 में भारतेंदु हरिशचंद्र ने अग्रवालों के इतिहास पर एक लेख लिखा “अग्रवालों की उत्पत्ति”। आज भी अग्रवाल जाति के इतिहास का यही एक मूल स्त्रोत है। बाकी की सारी किताबें भारतेंदु हरिश्चंद्र की किताब के आधार पर लिखी गई हैं।

सत्यकेतु विद्यालंकार, डीo लिट ने भी अग्रवालों के इतिहास पर एक पुस्तक लिखी है। विद्यालंकार जी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अग्रवालों के इतिहास में ऐतिहासिक कुछ नहीं है, बल्की सबकुछ पौराणिक कथाओं इत्यादि पर आधारित है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के बारे में कुछ बातें जाननी आवश्यक हैं। सिराजुद्दौला और मीरजाफर की कहानी हम सब जानते हैं। उस समय कलकत्ते में एक सेठ अमीचंद थे जिन्होंने मीरजाफर का साथ दिया था। भारतेंदु हरिश्चंद्र सेठ अमीचंद के वंशज थे। भारतेंदु अपने समय के बहुत बड़े हिन्दी साहित्यकार थे।

सत्यकेतु विद्यालंकार अपनी किताब में लिखते हैं कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अग्रवालों के इतिहास और महाराजा अग्रसेन की कहानी का आधार “महालक्ष्मी व्रत कथा” को बताया था जो उनके अनुसार भविष्य पुराण का एक हिस्सा थी। लेकिन अभी तक ज्ञात किसी भी भविष्य पुराण की प्रति में महालक्ष्मी व्रत कथा नहीं मिली है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की मृत्यु के बाद विद्यालंकार जी को ये महालक्ष्मी व्रत कथा भारतेंदु जी के पुस्तकालय में मिली थी जो हस्तलिखित थी और जिसे “भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने भविष्य पुराण की किसी प्रति से उतारा था”। लेकिन जैसा मैंने पहले लिखा है कि आज तक भविष्य पुराण की ये प्रति कहीं नहीं मिली है।

अग्रवालों के बारे में एक विचार यह भी था कि ये अगर लकड़ी का व्यापार करने वाली “श्रेणी” हुआ करते थे जो बाद में अग्रवाल बन गए। परमेश्वरी गुप्त जो स्वयं अग्रवाल थे ने तो यह भी कहा है कि महाराजा अग्रसेन नाम का कोई व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं है।

लेकिन भारतेंदु हरिश्चंद्र एक प्रकांड विद्वान और एक बहुत दूरदर्शी व्यक्ति थे। उन्होंने एक काम ऐसा किया जिसने अग्रवालों को अर्श से शीर्ष से पहुंचा दिया। खैर, अर्श कहना ठीक नहीं है। लेकिन यह सत्य है कि अग्रवालों को एक करने में और उनकी पहचान स्थापित करने में भारतेंदु बाबू की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। अग्रवालों ने भी बहुत पहले ही दूरदर्शी हो कर सोचना शुरू कर दिया था। महाराजा अग्रसेन जिनके बारे में इतिहास में कहीं कोई चर्चा कभी नहीं रही है, के इर्द गिर्द पूरा एक प्रभामंडल तैयार किया गया। आपको यह बता दें कि आज भी हरियाणा के अग्रोहा में महाराजा अग्रसेन के समय की या अग्रवालों से संबंधित कोई भी अवशेष नहीं मिले हैं। हां, अग्रवालों ने अपने प्रभाव से हरियाणा सरकार से अग्रोहा में खुदाई चालू करवाने की पूरी तैयारी कर ली है। अग्रोहा में ही महाराजा अग्रसेन का मन्दिर, हस्पताल, भवन इत्यादि इतनी संपत्ति बना दी गई है कि आज आप अग्रोहा का मतलब महाराजा अग्रसेन और अग्रवालोंं से ही समझते हैं। बकायदे टेली सीरियल्स बनाकर पॉपुलर कल्चर में महाराजा अग्रसेन को स्थापित करवाया गया है। अग्रवालों के इतिहास पर ही कम से कम दस किताबें तो आराम से मिल जाएंगी। 1911 की जनगणना की रिपोर्ट पढ़ें तो उसमें लिखा गया है की पिछली जनगणनाओ से 1911 में अग्रवालों की संख्या अचानक से बहुत बढ़ गई है जिसका कारण है कि पहले अपने आपको बनिया बताने वाले बहुत ज्यादा लोगों ने अपने आपको अग्रवाल बताना शुरू कर दिया था। 1871 से लेकर 1911 तक में यानी 40 वर्षों में भारतेंदु बाबू ने अपनी लेखनी से अग्रवालोंं को संगठित करने का अदभुत काम कर दिया जिसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही रहेगी।

मैं अग्रवालों को किसी भी तरह से क्रिटिसाइज नहीं कर रहा हूं। मैं तो उनकी दूर दर्शी सोच का कायल हूं। “एक रुपया और एक ईंट” ये हर अग्रवाल को पता है। हर अग्रवाल को सिर्फ एक रुपया और एक ईंट देनी थी समाज के लिए। लेकिन जब ये छोटा सा सहयोग धीरे धीरे जमा हुआ तो हर नगर, हर क्षेत्र में अग्रवालों का दबदबा बढ़ा। ये दबदबा इस कदर बढ़ा कि उन्होंने महाराजा अग्रसेन को सम्पूर्ण वैश्य समुदाय का आदि पुरुष घोषित कर दिया। और तो और मुझे बरनवाल महासभा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने आज से कोई 15 महीने पूर्व कहा था कि वैश्य समाज की कुलदेवी लक्ष्मी माता हैं जो दरअसल अग्रवालों की कुलदेवी हैं। अग्रवालों ने शासन, प्रशासन और हर क्षेत्र में अपना दबदबा बनाया है और बरकरार रखा है। एक सज्जन ने मुझे कहा था कि जो स्थिति ब्राह्मणों की हिंदू समाज में है वही स्थिती अग्रवालों की वैश्य समाज में है। स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि मैंने कई बरनवालों को अपने बच्चों के नाम में बरनवाल की जगह अग्रवाल लगाते हुए देखा है। कुछ बरनवाल तो अपने आपको बकायदे अग्रवाल कहना पसंद करते हैं। हमारे बहजोई के राजीव गुप्ता बरनवाल जी तो यह कहते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के, बरन के आस पास के कई अग्रवाल भी दरअसल बरनवाल ही थे जिन्होंने धीरे धीरे अग्रवाल कहलाना शुरू कर दिया। इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं। एक बरनवाल मित्र ने एक बार मुझे बताया था कि उनके घर पर महाराजा अहिबरन की कभी चर्चा नहीं होती थी बल्की महाराजा अग्रसेन के बारे में चर्चा होती थी। ये जन्मोत्सव के आयोजन से पूर्व की बात है। लेकिन उसमें इन सज्जन की या उनके परिवार की ही क्या गलती! जैसा मैंने अपने पूर्व के लेख (www.maharajaahibaran.com) में बताया है कि खुद बरनवाल अपने आदिपुरूष के रूप में महाराजा अग्रसेन का जयकारा लगाते थे और महाराजा अहिबरन की कहीं चर्चा भी नहीं करते थे। वो तो भला हो अजमेर के मास्टर भोलानाथ गुप्ता बरनवाल और बाद में जगदीश बरनवाल कुंद का जिन्होंने महाराजा अहिबरन को उनका स्थान दिलाने का धरातल तैयार किया। 1980 से पूर्व महाराजा अहिबरन की जयंती भी बरनवाल शायद ही मनाते थे।

यही स्थिति अग्रहरियों के साथ भी हुई। उनकी स्थिति हमसे थोड़ी और ज्यादा खराब हुई लगता है। उन्हें बकायदे महाराजा अग्रसेन के पुत्र हरी का वंशज दिखाकर महाराजा अग्रसेन का वंशज ही घोषित कर दिया गया। नतीजा सभी अग्रहरी अपने आपको महाराजा अग्रसेन के वंशज ही कहते हैं। बरनवालों के साथ भी यह करने की कोशिश आज भी जारी है। आज से एक वर्ष पूर्व किसी ने किसी ग्रुप पर एक अग्रवाल सज्जन का एक लेख पोस्ट किया था जिसके अनुसार महाराजा अहिबरन महाराजा अग्रसेन के वंशज थे। एक बरनवाल मित्र तो यह मानने के लिए तैयार ही नहीं होते हैं कि महाराजा अहिबरन महाराजा अग्रसेन के वंशज नहीं हो सकते हैं। यह साजिश(क्या ऐसा कहना सही है?) आज से नहीं चल रही है। 1932 से 1937 तक बरनवाल चंद्रिका के संपादक बेचू लाल बरनवालों को महाराजा अग्रसेन की संतान बताते थे और भोलानाथ गुप्ता के 1937 के रक्सौल अधिवेशन में इस बार से एतराज करने पर वो कुछ भी सुनने के लिए तैयार ही नहीं थे। उनके लिए महाराजा अहिबरन का अस्तित्व था लेकिन उसी तरह जैसे महाराजा अग्रसेन के बेटे हरी का जिन्हें आज कोई अग्रहरी शायद ही पूछता है।

अग्रवालों की पूरी शक्ति के समक्ष आज अगर कोई वैश्य समुदाय सही में खड़ा है और अपने ऐतिहासिक वजूद को बचाए हुए है तो वो बरनवाल ही हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि तेली, जायसवाल इत्यादि समुदाय हमसे कम प्रभावशाली हैं। उल्टे वो हमसे ज्यादा प्रभावशाली हैं। लेकिन पौराणिक और ऐतिहासिक इतिहास के आधार पर संपूर्ण वैश्य समुदाय में हमसे ज्यादा प्रभावशाली शायद ही कोई है। इस प्रभावशाली इतिहास को लेकिन हमने इतना विस्मृत कर दिया है कि हम बहुत पिछड़ गए हैं। अगर हम पौराणिक इतिहास को ही आधार बनाएं तो भी जैसा मैंने “रस्तोगी समाज का आदिकालीन इतिहास” पुस्तक से बनाई गई “महाराजा अहिबरन की वंशावली” में दिखाया है, कि महाराजा अहिबरन का इतिहास कहीं ज्यादा समृद्ध और उन्नत है। ईरानी ग्रंथ अवेस्ता जिसे ऋग्वेद के समकक्ष माना जाता है, में यमुना पार “बरन” का जिक्र है। अभी कुछ समय पूर्व मैं जगदीश बरनवाल कुंद से मिलने उनके आजमगढ़ स्थित आवास पर गया हुआ था। उन्होंने इतिहास को पौराणिक आधार से हटा कर प्रमाणिक इतिहास के आधार पर लाने पर बल दिया था। अगर पौराणिक इतिहास को छोड़ दें तो शायद सिर्फ एक ही वैश्य समुदाय है जिसके इतिहास के बारे में कुछ लिखा जा सकता है और वो समुदाय है बरनवाल समुदाय।

जब मैंने वंशावली बनाने के लिए लोगों को कहा तो एक सज्जन ने मुझे कहा कि अगर हम वंशावली बना बना कर महाराजा अहिबरन तक पहुंच जाएं तो क्या क्षत्रिय घोषित हो जायेंगे? लोग हमेशा मुझसे पूछते हैं कि इतिहास के बारे में जानकर क्या हासिल होगा। इतिहास आपको एक पहचान देता है और एक आधार देता है। अपनी गलतियों को आप समझते हैं और अपनी शक्ति को पहचानते हैं। इतिहास जानना जरूरी है। मनुष्य हमेशा अपने बारे में, अपने इतिहास के बारे में जानना चाहता है। और जो लोग अच्छा इतिहास लिखने वाले होते हैं उन्हें इतिहास हमेशा उच्च स्थान देता है।

बरनवालों के इतिहास की कुछ बातें आपको पता हैं। अगर नहीं पता हैं तो www.maharajaahibaran.com पर जाकर आप जान सकते हैं। अब हमने “बरनवाल” विकिपीडिया पेज को भी काफी हद तक ठीक कर दिया है। 2023 के जन्मोत्सव में एक वेबसाइट www.maharajaahibaran.com भी शुरू कर दी है।

कई बंधुओं ने जन्मोत्सव के आयोजन को लेकर मेरी बहुत आलोचना की थी। बाकी बातों से तो मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता लेकिन एक वाक्य ने मुझे सही में परेशान किया था। कुछ लोगों का कहना था कि जन्मोत्सव पिकनिक से ज्यादा कुछ नहीं था। मैं ऐसे सभी सज्जनों को बताऊं कि जन्मोत्सव एक कार्यक्रम नहीं था बल्कि एक माइलस्टोन था। सिर्फ इसलिए नहीं कि हमने पहली बार बरन में ऐसा कार्यक्रम किया बल्की इसलिए कि इस बहाने से हमने बरन वालों का बरनवालों में इंटरेस्ट बहुत बढ़ा दिया। जैसे एक ऊर्जा की लहर उमड़ पड़ी जिसने देश के विभिन्न भागों के बरनवालों के बीच सूचना का एक सेतु बनाने का काम किया। लेकिन ये सब भी सिर्फ एक शुरुआत से ज्यादा और कुछ नहीं है।

मेरा मानना है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जो काम अग्रवालों के लिए किया था वो काम अगर कोई बरनवालों के लिए करता तो आज हमारी स्थिति कहीं ज्यादा मजबूत होती। कई लोग ऐसा लिखने के लिए मेरी काफी आलोचना करेंगे लेकिन मेरा मानना है कि हमें यानी बरनवालों को बरनवाल इतिहास पर शोध और लेखन के लिए हर वर्ष एक शोधार्थी को प्रायोजित करना चाहिए। यह सच है कि ऐसा कोई सिस्टम अभी नहीं है। लेकिन मेरी नजर में यह धर्मशाला बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम है।

-अतुल कुमार बरनवाल