परम तo जनक दुलारी जी का संक्षिप्त जीवन परिचय

परम तo जनक दुलारी जी का संक्षिप्त जीवन परिचय

तo जनक दुलारी जी का जन्म 05 अगस्त, 1962 को तत्कालीन बलिया जिला, संप्रति मऊ जनपद के एक छोटे से गांव हलधरपुर के एक मध्यमवर्गीय बरनवाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम हेमनराम बरनवाल एवं माता का नाम देवंती देवी था। हेमन राम जी की सात संतानें थीं जिसमें जनक दुलारी 5वें स्थान पर थीं। तपस्विनी का जन्म एक ऐसे विलक्षण समय में हुआ जिस समय कोई भी ग्रह इनका वक्री नहीं था। ज्योतिषविदों के अनुसार ऐसे समय में जन्म लिया हुआ जातक या तो राजा होगा या योगी।

तo जनक दुलारी बचपन से ही एक कुशाग्र बुद्धि बालिका थीं। यही कारण है कि 1976 की हाई स्कूल की परीक्षा में इन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया था। इनका परिवार प्रारंभ से ही धार्मिक प्रवृत्ति का था। हेमन राम जी भी भगवान शिव के अनन्य भक्त थे और गांव में स्थिति शिव मंदिर पर नियमित रूप से पूजा अर्चना के लिए जाते थे।

 

जनक दुलारी के सबसे बड़े भ्राता श्री ब्रजानंद जी नेहरू इंटरमीडिएट कॉलेज रतनपुरा में शिक्षक पद पर कार्यरत थे। 21 मई 1977 को गाजीपुर के एक गांव में बारात जाने के क्रम में इनकी मृत्यु हो गई जिसका कारण अभी तक अज्ञात है। जब भाई की लाश घर पर आई उस समय पूरे घर में शोक की लहर दौड़ गई। ब्रजानन्द की मृत्यु के वक्त आयु मात्र 24 वर्ष थी और उनकी मृत्यु विवाह के मात्र तीन महीने बाद ही हो गई थी। पूरा गांव इस घटना से हतप्रभ एवं शोकाकुल हो उठा। इस समय जनक दुलारी भी अन्य बच्चों को भांति रोती चिल्लाती रहीं लेकिन एक दो दिन के बाद धीरे धीरे शांत हो गईं लेकिन उसी दिन से उन्होंने अन्न का त्याग कर दिया। यही वही विलक्षण शोक संतप्त घड़ी थी जिसने एक अबोध बालिका को योग की दिशा में मुखरित करने को प्रेरित किया।

जनक दुलारी अन्न को छोड़कर कभी कभी दूध और फल ले लिया करती थीं। परिवार के लोग इस बात को शोक ग्रसित होना ही समझते रहे। उनको इस बात का लेश मात्र भी आभास नहीं था कि इस छोटी बच्ची के हृदय में हठ योग का बीज प्रस्फुटित हो रहा था। इसी क्रम में एक दिन जनक दुलारी अर्द्ध चेतना को अवस्था में पहुंच गईं और पाने पिछले तीन जन्मों की कहानी बताने लगीं। इसी क्रम में उन्होंने बताया कि उन्होंने और ब्रजानंद जी की विधवा पत्नी ने पिछले जन्म में अलग अलग तपस्या की थी। जिस पर भगवान शिव से उनसे वरदान मांगने को कहा। भाभी ने तो एक सुंदर पति मांगा जबकि जनक दुलारी ने मोक्ष। सुंदर पति पाकर भाभी अपने रास्ते से भटक गईं इसलिए भगवान ने वरदान को श्राप में बदल दिया कि उन्हें सुंदर पति तो मिलेगा लेकिन वो पति सुख से वंचित रहेंगी। ब्रजानन्द की आत्मा कोई साधारण आत्मा नहीं बल्कि शिव लोक की एक आत्मा थीं जिन्हें शिव ने ही पति के रूप में भेजा था। वो वरदान को पूर्ण करके प्रत्येक जन्म में शिवलोक गमन कर जाएंगी।

 

करीब एक दो माह के बाद जनक दुलारी जी ने फल और दूध लेना भी छोड़ दिया और केवल बताशा और पानी पर रहने लगीं। इसी क्रम में उन्होंने एक दिन अपनी चाची के यहां जो एक छोटी सी से दुकान करती थीं, बैठी थीं। उनकी चाची ने कहा कि अगले दिन वो लोग अयोध्या जाने वाले थे। तब जनक दुलारी ने स्वयं को भी ले चलने का आग्रह किया। चाची जी ने सहमति में हां कर दिया लेकिन अगले दिन जब जनक दुलारी ने अपने छोटे भाई को दुकान से अगरबत्ती लाने भेजा तो पता चला कि दुकान बंद है और वो अयोध्या चली गई हैं। उस समय उनको थोड़ा कष्ट तो हुआ और उन्होंने पूजा पाठ करने के बाद अपनी मां से कहा कि “आज मुझे काफी नींद आ रही है। मुझे कोई जगाएगा नहीं।” एक चादर ओढ़ कर तपस्विनी बगल में पड़ी चौकी पर सो गईं। करीब 18 घंटे सोने के पश्चात दूसरे दिन सोकर जब वो उठीं तो परिवार वालों से कहने लगीं कि “लग रहा है कि मैं कुछ ज्यादा ही सो गई थी।” इस पर परिवार वाले हंस दिए और कहने लगे अभी तो चौबीस घंटे भी नहीं हुए। दो दिन बाद जब चाची लौट कर आईं तो उनकी मां से कहने लगीं कि “जब आप लोगों को जनक दुलारी को लेकर अयोध्या जाना ही था तो पहले से क्यों नहीं बताया।” उनकी मां ने बताया की उनके यहां से तो कोई अयोध्या गया ही नहीं था बल्की जनक दुलारी भी घर पर ही 18- 20 घंटे सोते रही थीं। तब चाची ने बतलाया कि वह अयोध्या के जिस भी मंदिर में पहुंची वहां जनक दुलारी पहले से ही खड़ी थीं और पूजा कर रही थीं। जनक दुलारी ने जागने के बाद अयोध्या के सारे मंदिरों का वर्णन किया था लेकिन अंत में कहा था कि वो स्वप्न देख रही थीं। यह घटना इस बात की ओर संकेत करती है कि जनक दुलारी इस नश्वर शरीर को छोड़ कर सूक्ष्म शरीर में कहीं भी आ जा सकती थीं।

कालांतर में चल कर जनक दुलारी जी ने 26 अक्टूबर 1977 को वाराणसी चलकर गंगास्नान करने की इच्छा प्रकट की। लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण यह संभव नहीं था। तब उन्होंने गांव के एक सम्मानित व्यक्ति केदार सिंह जिन्हें वो भईया कहा करती थीं, से अपनी इच्छा व्यक्त की। केदार सिंह तुरंत तैयार हो गए और यह एक संयोग था कि उसी समय तपस्विनी के कुलगुरु पंडित बेचन जी भी आए हुए थे। अतः जनक दुलारी जी की मां, भाई, केदार सिंह जी और कुलगुरू सभी लोग जाने को तैयार हुए लेकिन वाराणसी में उस समय कर्फ्यू लगा था। इसलिए अपनी परेशानी से भी उनको अवगत कराया। तब देवी जी ने मार्कंडेय महादेव चलना स्वीकार किया। उसी दिन रात्रि में त्रिवेणी एक्सप्रेस से ये लोग औड़िहार जंक्शन पहुंच गए लेकिन वहां रात्रि दो बजे कोई साधन मार्कंडेय महादेव जाने के लिए उपलब्ध नहीं था। बताते चलें कि जनक दुलारी जी ने घर पर ही कह दिया था कि मैं अंतिम बार कल सूर्योदय से पूर्व जल ग्रहण करूंगी, उसके बाद मैं जल का भी त्याग कर दूंगी। ऐसी विषम परिस्थिति में सूर्योदय के पूर्व मार्कंडेय महादेव पहुंचना एक दुरूह कार्य था। इस समय जनक दुलारी जी ने कहा कि स्टेशन से दक्षिण की तरफ कोई रोड है वहां चलिए अगर भोलेनाथ की कृपा होगी तो शायद कोई साधन मिल जायेगा। यह कह कर वह आगे आगे चलीं जबकि सारे लोग उनके पीछे। यह घटना भी तपस्विनी के आत्मज्ञान को परिलक्षित करता है। आश्चर्य तो तब हुआ कि सड़क पर पहुंचने के मात्र 10 मिनट के बाद ही वाराणसी की तरफ से एक तेज ट्रक आता दिखाया दिया। ड्राइवर ने ट्रक रोक कर कहा कि आइए, आपलोगों को मार्कंडेय महादेव चलना है ना। इस पर एकाएक केदार सिंह का ध्यान वाराणसी के कर्फ्यू की तरफ चला गया और उन्होंने कहा कि नहीं हम लोगों को गाजीपुर जाना है। लेकिन उस ड्राइवर ने बताया कि मैं तो जौनपुर जा रहा था लेकिन एक आदमी ने कहा कि औड़िहार में चार पांच लोग खड़े हैं उनको मार्कंडेय महादेव पहुंचा दो बड़ी कृपा होगी। उन ड्राइवर ने उन्हें गंतव्य तक पहुंचा दिया और जनक दुलारी जी को साष्टांग प्रणाम कर के चला गया जबकि उस समय देवी जी एक सामान्य लड़की को भांति सलवार सूट पहनी हुई थीं। यह स्थिति ईश्वरीय शक्ति की ओर इंगित करती है।

 

तपस्विनी स्नान पूजन के पश्चात काशी चलने के लिए आग्रह करने लगीं। सभी लोग उनसे वाराणसी के कर्फ्यू की बात कहने लगे लेकिन उन्होंने कहा कि हम हैं ना कोई दिक्कत नहीं होगी, आपलोग चलें। आश्चर्य की बात कि जहां काशी पुलिस छावनी में परिवर्तित हो चुकी थी, सड़क पर कोई दिखाई नहीं दे रहा था मात्र ये पांच लोग चल रहे थे। किसी पुलिस कर्मी ने उन्हें नहीं रोका। दशाश्वमेध घाट पर पुहंचकर ये गंगा नदी में गर्दन भर जल में पहुंच गईं और परिवार के लोगों से कहा कि आपलोग अब घर जाइए, मेरी तपस्या यहीं पूरी होगी। अब सारे लोग विस्मय में पड़ गए। कुल गुरु के बहुत आग्रह पर जनकदुलारी ने घर आना स्वीकार किया।

30 अक्टूबर 1977 को वाराणसी से घर आने के पश्चात जनक दुलारी जी ने सुबह भाई के श्राद्ध से बचे मारकीन के कपड़े को साधुओं के अंचला जैसे गर्दन से पैर तक बांध लिया, मस्तक पर त्रिपुंड तथा बालों का तिरछा जुड़ा बना लिया था। उनके एक हाथ में जलती धूपदानी तथा दूसरे हाथ में रुद्राक्ष की माला थी। वह अपने पुराने सामान्य वस्त्रों को उतार चुकी थीं। उन्होंने परिवार के लोगों से कहा कि अब ये दरवाजा दस दिनों तक बंद रहेगा। जबकि उस कमरे में को उस समय एक पीपल के पेड़ के नीचे था कोई जंगला, खिड़की तक नहीं थी। लोग कुछ कहते या करते उसके पूर्व ही उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया।

 

पांच दिन के पश्चात करीब शाम सात बजे एक करूं स्वर में एक आवाज सुनाई देने लगी “मां, दरवाजा खोल, द्वार पर ब्राह्मण आए हैं।” आवाज में इतनी करुणा थी कि परिवार के लोग विहवाल हो उठे। मां रोने लगी कि मेरी बच्ची के साथ यह क्या हो रहा है। अंततोगत्वा, मां ने तेजी के साथ दरवाजे को धक्का दिया और दरवाजा खुल गया। कमरे के अंदर जनक दुलारी चौकी पर मृत अवस्था में पड़ी हुई थीं। तब तक गांव के अन्य लोग भी उपस्थित हो गए क्योंकि परिवार के लोगों के रोने चिल्लाने की आवाज फैल गई थी। अब अंतिम संस्कार की तैयारी की जाने लगी। उसी समय उनके नेत्र फड़फड़ाने लगे और मुंह से एक शिव स्त्रोत “शंकरम संप्रदम” फुट पड़ा। आंख मलते हुए जनक दुलारी उठ कर बैठ गईं। अपने कमरे में परिवार और गांव के लोगों को पाकर पूछ बैठीं आपलोग अंदर कैसे आए। परिवार के लोगों ने आद्द्योपांत सारी बातें बताईं। तब उन्होंने बताया कि मैंने पांच दिन तक एक पैर पर खड़े हो कर तपस्या की तब जाकर भगवान शिव के दर्शन हुए। मैंने कहा कि मां पार्वती कहां हैं। उन्होंने कहा कि उनके दर्शन के लिए हिमालय चलना होगा। उनको ब्राह्मण बहुत प्रिय हैं। तुम चल कर कहो कि मां दरवाजा खोलो ब्राह्मण आए हैं। में वहीं जाकर आवाज लगा रही थी। अभी दरवाजा खुलता तब तक आपलोगो ने मुझे इस शरीर में वापस आने के लिए बाध्य कर दिया। आज से मैं बोलना भी बंद कर दूंगी और हां, अगर कोई ऐसी घटना पुनः घटे तो सात दिन तक प्रतीक्षा के बाद ही कोई दैहिक क्रिया या अंतिम संस्कार करें। मैं कहीं भी रहूंगी सात दिन के अंदर आ जाऊंगी। उसी दिन से उन्होंने बोलना भी बंद कर दिया।

 

धीरे धीरे जनक दुलारी ने अन्न जल यहां तक कि निद्रा का भी परित्याग करके एक चौकी पर हठ योग की मुद्रा में दक्षिण मुखी होकर तपस्या में निमग्न रहने लगीं। दक्षिण मुखी तपस्या मोक्ष प्राप्ति के लिए होती है। शायद इसका भान तपस्विनी को पूर्व जन्म से ही था।

 

इस प्रकार फरवरी 1978 से उनकी तपस्या की चर्चा जंगल।में आग की तरह फैलने लगी। दूर दूर से लोग दर्शन के लिए आने लगे। सर्व प्रथम बलिया से प्रकाशित दैनिक भृगु क्षेत्र पत्र में उनके बारे में खबर प्रकाशित हुई “चौदह माह से निराहार बालिका के मुख पर कांति, हलधरपुर में पार्वती का अवतार।”

 

इस प्रकार समाचार पत्रों में प्रकाशन ने दर्शन को और बृहद बना दिया और लाखों लाख लोग प्रतिदिन दर्शन के लिए आने लगे। स्थिति नियंत्रण से बाहर होते देख प्रशासन ने वहां सैकड़ों पुलिस और इंस्पेक्टर की प्रति नियुक्ति कर दी, जिसकी मांग उस समय के स्थानीय विधायक मन्नू राम ने की थी। सारी ट्रेनें भी गांव के समीप रुकने लगीं। गार्ड और ड्राइवर भी ट्रेन छोड़कर दर्शन के लिए आने लगे। इस बीच रोज दर्शन की प्रक्रिया को स्थानीय लोगों द्वारा दो दिन रविवार और मंगलवार को निर्धारित कर दिया गया। देवी जी का दर्शन प्रतिदिन की भांति चल रहा था। उसी बीच एक दिन वह पुनः अर्द्ध चेतना की अवस्था में चौकी पर लेट गईं। लेटे लेटे ही उनके हाथों की गतिविधियों से ऐसा महसूस हो रहा था कि वह विधिवत किसी की पूजा कर रही थीं जबकि उनके हाथों में कोई सामग्री नहीं थी। अंत में जब अपने हाथ से उठा कर अपने मस्तक पर चंदन लगाईं तो वह सफेद चंदन मस्तक पर दिखाई देने लगा तब लोगों को पता चला कि यह चंदन जो मस्तक पर लगाती हैं वो अलौकिक था। देवी जी के शरीर में कोई स्पंदन नहीं था। उनकी पलकें हमेशा झुकी रहती थीं। उनके शरीर की छाया भी नहीं बनती थी जो एक देव तुल्य प्राणी की ही होती है। कुछ लोग तो ये भी कहते थे कि वो एक पत्थर की मूरत हैं जिसको सब देवी कहते हैं।

बताते चलें कि देवी जी जिस हठ योग की मुद्रा में सुबह पांच बजे से सांय पांच बजे तक बैठती थीं, एक सामान्य व्यक्ति के वश की बात नहीं थी। शरीर में कोई हलचल या श्वांस गति का भी अभाव होता था। इस बीच गंगोत्री यमुनोत्री के हजारों संत शिरोमणि महात्माओं का भी आवागमन होता रहा। उसी बीच एक बात फैल गई कि परम पूज्य देवरहा बाबा आने वाले हैं। इस दिन भीड़ नियंत्रण से बाहर हो गई। पुलिस कर्मियों को हल्का बल भी प्रयोग करना पड़ा। लेकिन कहीं भी देवरहा बाबा के दर्शन नहीं हुए। हां, यह बात अवश्य देखी गई कि एक सामान्य साधु जो मस्तक पर जटा में एक लाल पट्टी बांधे था देवी जी के दर्शन के लिए आए। उस समय देवी जी की आंखें ऊपर उठीं इसके बाद वो महात्मा गायब हो गए। गांव के काफी दूर तक लोगों ने उन्हें चारों तरफ ढूंढा लेकिन कहीं भी उनके दर्शन नहीं हुए। बाद में व्यलईपुर गांव के एक राय साहब देवरहा बाबा के दर्शन के लिए उनके स्थान पर गए, तब उन्होंने कहा कि “वहां दर्शन करने क्यों नहीं जाते जहां पार्वती का अवतार हुआ है।” मैं तो स्वयं दर्शनार्थ गया था। योगी राज महर्षि देवरहा बाबा के ये शब्द तपस्विनी के तप की पराकाष्ठा को परिलक्षित करते हैं।

 

तपस्या की इसी कड़ी में देवी जी सावन महीने जो 1978 में आया था एक बार पुनः काशी पहुंच गईं। रास्ते पर भारी दर्शनार्थियों को भीड़ थी, जबकि पहले से किसी को कोई सूचना भी नहीं थी। दशाश्वमेध घाट पर स्नान के पश्चात ये माला लेकर जब अपने आराध्य के पास काशी विश्वनाथ मंदिर पहुंची तो पुजारी ने इनके हाथ से माला लेकर स्वयं पहना दी जिससे ये उदास मन से मंदिर के बाहर चली आईं। कुछ क्षण ही बीते थे कि वह पुजारी दौड़ते हुए बाहर आया और पैर पकड़ कर क्षमा मांगने लगा। कहा कि मैं आपको नहीं पहचान सका। बहुत अनुनय विनय के उपरांत उन्होंने खुद से माला देकर तपस्विनी को चढ़ाने के लिए निवेदन किया तब जाकर देवी जी ने अपना पूजन अर्चन संपन्न किया तत्पश्चात पुनः अपनी पर्ण कुटी हलधरपुर को चली आईं।

 

आइए आपको ये भी बताते हैं कि देवी जी के कमरे का दरवाजा स्वयं खुलता और बंद होता था। किसी ने भी देवी जी को नहाते हुए नहीं देखा, केवल उनके भीगे हुए कपड़े आंगन में हैंडपंप के पास पड़े मिलते थे, जबकी बहुत सारे लोगों के द्वारा इसके लिए रात रात भर बैठ कर प्रयास किया गया। यहां तक कि लखनऊ से आई CBI की टीम भी जांच करके थक चुकी थी।

 

दर्शन और तपस्या की इस कड़ी के बीच एक समय आया 11 फरवरी 1979 दिन रविवार सांय 5 बजे दर्शन के उपरांत दरवाजा बंद हो चुका था। इसी बीच उनके कमरे से धुंआ निकलने लगा। आस पास के लोग भी इक्कठा हो गए। एकाएक दरवाजा खुल गया और देखा गया कि देवी जी योगाग्नि में जल रही हैं। आग की लपटें कमरे के ऊपर तक पहुंच रही थीं जबकि उस कमरे में एक अगरबत्ती तक नहीं जलती थी। आग उनके अंगूठे से निकाल रही थी। मां की ममता नहीं मानी और उन्होंने जाकर उन्हें पकड़ लिया। वह भीषण आग मां के पकड़ते ही शांत हो गई। मां के शरीर और हाथ का जहां जहां संपर्क हुआ वहां वहां उनके शरीर पर छाले पड़ गए। बाकि शरीर पर आग का कोई असर नहीं था। मुखमंडल वैसे ही दमक रहा था लेकिन अब उनकी तपस्या और दर्शन चौकी पर लेते लेते ही होता था। और इस तरह एक दुःखद घड़ी 18 मार्च 1979 को आई जब देवी जी सब को छोड़कर शिवलोक प्रस्थान कर गईं।

ज्ञातव्य हो कि मैं पहली ही लिख चुका हूं कि उन्होंने कहा था कि सात दिन के बाद ही कोई अंतिम संस्कार करें। इसलिए परिवार के लोग सात दिन तक प्रतीक्षा करते रहे। इस बीच डॉक्टरों की पांच सदस्यों की टीम बलिया और लखनऊ से बुलाई गई। चिकित्सकों ने बताया कि मरने के सारे लक्षण हैं और जीने के भी सारे लक्षण हैं, इसलिए ये अध्यात्म का विषय है। हम लोग कोई निर्णय देने में असमर्थ हैं। इन आठ दिनों में देवी जी का नित्य स्वरूप बदलता रहा। दुर्गा के नवों रूप उनके अंदर दिखाई दिए। अंत में “पंचनामा” बनाकर 24 मार्च 1979 को तपस्विनी जनक दुलारी को गांव के बाहर स्थित शिव मंदिर के सामने समाधिस्थ कर दिया गया। कालांतर में श्री भारत वर्षीय बरनवाल वैश्य महासभा द्वारा एक छोटे से मंदिर का निर्माण कराया गया। आज भी यह समाधि लोगों के श्रद्धा और विश्वास का केंद्र है। यहां बहुत से लोगों की मन की मुरादें पूरी होती हैं। और दूर दूर से लोग दर्शन के लिए आते हैं। यहां वर्ष में दो बार महाशिवरात्रि और दशहरा के अवसर पर रामलीला का मंचन एवं मेला का आयोजन किया जाता है। यह स्थान “देवी जनक दुलारी धाम” के नाम से प्रसिद्ध है और बरनवाल समुदाय के लिए गौरव और श्रद्धा का विषय है।

-लेखक: संपूर्णानंद (बरनवाल)

नोट: यह एक सत्य घटना है जो आंखों द्वारा देखी गई है। सत्यता के लिए उनकी चाची एवं श्री केदार सिंह जी से अभी भी संपर्क किया जा सकता है।

“आ यहां अदब से ऐ राही, इनको कुछ सुंदर फूल चढ़ा।

श्रद्धा से इनको शीश झुका, सिर पर देवी की धूल चढ़ा।

पथ में इनके रस भक्ति भरी, सुंदर कल कथा सुनाते जा।

पा रोग व्यथा से छुटकारा, इन देवी का यश गाते जा।

भारत मां की भक्ति भूमि पर वरदायिनी कल्याणी हैं।

बलिया में भृगु तपस्या भी अपने में अमिट

निशानी है।”