कौन हैं तo जनक दुलारी देवी??

कौन हैं तo जनक दुलारी देवी??

आज से कोई दो महीने पहले मऊ के प्रवास के समय मैंने पहली बार तo जनक दुलारी देवी के समाधि स्थल के दर्शन किए थे। उसके बाद यह मन में आया कि इस जगह पर हमें काम करने की जरूरत है। फिर मन में ख्याल आया कि देवी जी का अवतरण दिवस बिल्कुल पास ही था, जब हम एक समारोह के रूप में इसे सेलिब्रेट कर सकते हैं।

अभिषेक बरनवाल, रवि बरनवाल और टीम मऊ ने जिस समर्पण भाव के साथ काम किया है उसके लिए कोई अलग से लेख लिखना ज्यादा ठीक है।

मेरा उद्देश्य यहां तo जनक दुलारी की कहानी बताना भी नहीं है। संपूर्णानंद जी ने देवी जी के बारे में विस्तृत रूप से एक लेख लिखा है जो आप www.maharajaahibaran.com पर पढ़ सकते हैं।

तo जनक दुलारी जी के बारे में जब मैंने पहली बार 08.06.2024 को लिखा तो कई लोगों ने मुझे पर्सनल मैसेज किए कि मैं अंधविश्वास फैला रहा हूं, कई लोगों ने कहा तो नहीं लेकिन शायद कहीं ना कहीं उनके मन में “अविश्वास” का भाव तो था ही। मुझे यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि मेरी खुद की भी कोई श्रद्धा देवी जी पर नहीं थी। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि मैं इनके बारे में कुछ विशेष नहीं जानता था। देवी जी के भाई शिवानंद जी का एक लेख 1980 में छपा था, उसे पढ़ने से कुछ जानकारी तो अवश्य थी लेकिन जानना और “जानने” में फर्क है। पहला जानना मतलब एक सूचना दिमाग में होना, दूसरे जानने का मतलब है ” अंतर्मन में स्वीकार करना”। पहले में जहां सिर्फ सूचना है, दूसरे में भावना भी है।

 

अवतरण दिवस समारोह की तैयारी के समय विभिन्न सूचनाएं उभर कर आईं, जैसे जब डॉक्टरों की टीम ने उन्हें समाधि लेने के बाद मृत घोषित करने से मना कर दिया था लेकिन वो उन्हें जीवित भी नहीं बता पा रहे थे। ये कोई किवदंतियां नहीं हैं। इस समय के अखबारों में छपी हुई खबरें हैं। जैसे जब जालंधर से छपने वाले पंजाब केसरी ने इनके बारे में लिखा “विज्ञान के लिए एक चुनौती।” गांडीव अखबार लिखता है “उस कुटिया में ना तो चंदन है और ना ही खड़िया मिट्टी किंतु तपस्विनी द्वारा बाएं हाथ की हथेली पर दाएं हाथ की अंगुलियों से रगड़ कर त्रिपुंड तिलक लगाने से स्पष्ट चंदन हो जाता है और उसमें एक दिव्य तेज अंकित हो जाता है।” उनकी समाधि के तीन दिन बाद बाद एक अखबार की खबर पढ़िए “बताया जाता है कि गत 18 मार्च से कुमारी जनक दुलारी की यही स्थिती है। उनके हाथ पैर जहां से मोड़िए आसानी से मुड़ जा रहे हैं। नाखूनों के रंग में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। सिर्फ आंखें कुछ धंस गई हैं। जिलाधिकारी के आदेश से कल मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी पूरी जांच कर के रिपोर्ट देंगे। वैसे जिन डॉक्टरों ने स्वयं जाकर जनक दुलारी की जांच की है उनका कहना है कि जनक दुलारी जी की मृत्यु हो गई है, यह नहीं कहा जा सकता” एक और खबर पढ़िए “सत्रह महीनों के उपवास और छह महीनों के जल त्याग के बावजूद जनक दुलारी के चेहरे पर आत्म तृप्ति की गहरी छाप है। भीषण गर्मी में भी उनके चेहरे पर पसीने की एक बूंद भी नहीं होती।” दैनिक भृगु क्षेत्र ने उन्हें “कलयुग की पार्वती” लिखा है। जनक दुलारी के दर्शन को जाने वाले दर्शनार्थियों को रास्ते के ना होने के कारण होने वाले कष्ट का मुद्दा उत्तर प्रदेश विधान सभा में भी उठाया गया था। मुख्य चिकित्सा अधिकारी ने उन्हें समाधी लेने के कई दिन बाद मृत घोषित किया तब उन्हें उनके समाधि लेने के 07 दिन बाद भूमि में समाधि दी गई, वैसे ही जिस मुद्रा में उन्होंने समाधि ली थी।

 

समाधि लेने के पूर्व भी जनक दुलारी की चर्चा इस कदर फैल चुकी थी कि हर दिन 15- 20 हजार लोग उनके दर्शन को पहुंचते थे। बलिया -शाहगंज आने जाने वाली हर एक ट्रेन गांव के सामने रुकती थी। हलधरपुर आने वाली हर एक गाड़ी ठसाठस भर कर आती थी।

विधान सभा में प्रश्न उठने के बाद तीन सदस्यों का एक दल उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से जांच के लिए आया। यह दल तपस्विनी के मल मूत्र की जांच करना चाहता था। उस समय ग्राम वासियों ने कहा कि तपस्विनी ने अन्न जल का पूर्णतः त्याग कर दिया है इसलिए मल मूत्र विसर्जन का कोई प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। टीम फिर तपस्विनी की क्लिनिकल जांच करना चाहती थी लेकिन लोगों ने तपस्विनी के शरीर पर किसी भी प्रकार के औजारों के प्रयोग करने को अस्वीकार कर दिया क्योंकी इससे उनकी तप साधना में विघ्न पड़ता। पंजाब केसरी उस समय तपस्विनी के चारों तरफ तैयार किए जा रहे प्रभा मंडल को शंकित नजरिए से देखते हुए भी यह स्वीकार करता है कि तपस्विनी के बारे में कई बातें आसामान्य हैं जिसमें उनका 6 महीनों से जल और 17 महीनों से अन्न त्याग करना भी शामिल है।

दैनिक भृगु क्षेत्र तपस्विनी के बारे में कई आशंकाएं जाहिर करता है “उक्त लड़की अपने ही घर में रहती है. प्रतिदिन पूजा पाठ के बाद तपस्विनी का रूप धारण कर के एक ही आसान में बैठती है. अब यह संदेह हो रहा है कि यदि वह वस्तुतः किसी की तपस्या में लीन है तो उसे निश्चित भेष भूषा धारण करके अपना दर्शन कराने की क्या आवश्यकता है. क्योंकि भीड़ से तो तप में व्यवधान ही पड़ता है.”

तपस्विनी ने मौन व्रत धारण किया हुआ था। श्रद्धालु उनके पास अपनी बातें लिख कर चिट में ले जाते थे। तपस्विनी भी उत्तर लिख कर ही देती थीं। 05 अगस्त 1978 को एक श्रद्धालु ने उनसे प्रश्न किया “भक्ति में अगर बाधा पड़ेगी तब भी अनर्थ है। और दर्शन ना करने दिया जाए तब भी अनर्थ है। जैसी आप राय दें वैसा किया जाए। और इसी विषय को लेकर गांव में मार पीट हो जाने की संभावना है तो क्यों ना इसको बंद कर दिया जाए।” उत्तर में तपस्विनी लिखती हैं “मेरे लिए क्यों किसी को परेशानी उठानी पड़े। इससे ठीक है दर्शन बंद कर दिया जाए जिससे मेरी भी स्नान पूजा शांति पूर्वक चले क्योंकि शोर से जैसे सर चक्कर देने लगता है। अब मुझे दिखाई नहीं देता है। इसे मैं किसी प्रकार अंदाज से लिखी हूं। इसमें गलती भी हो तो पढ़ …(अस्पष्ट) ठीक से.” एक चिट में वो लिखती हैं “मेरे पास अब आप कुछ भी लिखने के लिए ना लाएं। मैं बार 2 कहती हूं कि मुझे बहुत कम दिखाई देता। आज मैं बहुत परिश्रम से इतना लिख सकी तभी से सिर बहुत दर्द कर रहा है तथा आंख से बिल्कुल धुआं के समान दिख रहा है और हमेशा पानी भी गिरता रहता है। मालूम होता है दो चार रोज में मैं स्नान के लिए भी”  एक चिट में वो लिखती हैं “अभी मेरा मन इन समय कहीं जाने के लिए नहीं है क्योंकि मेरी इच्छा हर समय जागृत नहीं होती है कि मैं कोई कार्य करूँ. इस लिए इस समय मैं जाने के विषय कुछ कह नहीं सकती.” 05 अगस्त को किसी ने पूछा “वकील साहेब का बड़े हर्ष और उल्लास से कहना है कि यह संसार ही नश्वर है तो आपके देहावसान हो जाने के बाद जलक्रिया या अग्नि क्रिया या समाधि क्रिया कौन सी सेवा हमलोग करेंगे और कहाँ करेंगे.” उत्तर में तपस्विनी लिखती हैं “इसके विषय में समय आने पर बताउंगी.

इन संक्षिप्त टिपणियों से यह स्पष्ट होता है कि तपस्विनी दर्शन देने की कोई इच्छा नहीं रखती थीं. उनका दर्शन देना कहीं ना कहीं जान मानस की भावनाओं का आदर करना था. तपस्विनी एक परम स्थिति को प्राप्त कर चुकी थीं जो इच्छा से  परे की स्थिति थी. उन्होंने अपने देह त्याग का भी विचार कर लिया था. शरीर और शारीरिक इन्दिर्यों से दूरी जैसे उनका लक्ष्य, उनका साधन, उनकी साधना अलौकिक हो चुकी थीं.

यह आशंका उठाना लाजमी है कि क्या तपस्विनी के परिवार ने यह प्रपंच रच कर एक कन्या के जीवन के बदले किसी प्रकार का धनार्जन करने की कोई चेष्टा की थी. गांडीव की 07 जनवरी 1978  की एक हेडलाइन पढ़ें “तपस्विनी जनक दुलारी के नाम पर एक पैसा किसी को ना दें.” आगे अखबार लिखता है “परिवार गरीब है किन्तु स्वाभिमानी है, दीन नहीं  है. तपस्विनी के नाम पर एक भी पैसा खाने वाला परिवार नहीं है. तो वह कैसे बर्दाश्त करें कि उस महान तपस्विनी के नाम पर लोग चन्दा वसूल करें.

तपस्विनी की समाधि के कुछ वर्षों पश्चात वहाँ श्री भारतवर्षीय बरनवाल वैश्य महासभा ने एक मंदिर का निर्माण अवश्य कर दिया लेकिन पिछले कोई 45 वर्षों में किसी भी प्रकार से इसका व्यवसायीकरण  करने की कोई कोशिश न तो गाँव वालों ने की और ना ही परिवार वालों ने. यह अवतरण दिवस का समारोह भी मेरे परेशान करने के कारण मऊ के लोगों को मनाना पड़ा. समारोह में शामिल होने के लिए मैं जब गाँव पहुंचा तो ग्रामीणों ने देवी पर अटूट मान्यता होने की बात कही. वापस लौटते समय मुख्य मार्ग पर ऑटो में बगल में एक महिला बैठी हुई थीं. उन्होंने हमसे पूछा कि क्या हम देवी जी के यहां से आ रहे हैं. साथ ही बताया कि वो लोग तो अक्सर उस मंदिर में जाते ही रहते हैं. कई सारी किवदंतियां वहाँ फैली हुई हैं. कुछ बुजुर्ग वार लोगों का कहना है कि उन्होंने खुद देवी जी के कमरे का स्वतः खुलना और बंद होना देखा है. कई लोगों का कहना है कि लोग रात रात भर बैठ कर देखते थे कि वो कब स्नान करती हैं? लोगों के मन में उन्हें भोजन छुप कर ग्रहण करते देख लेने की इच्छा भी अवश्य ही रही होगी ताकि उनका और उनके परिवार का “भंडा फोड़” कर दिया जाए. लेकिन जैसा उनके हस्त लिखित पर्चियों से इंगित होता है कि उनकी शारीरिक अवस्था उन इंसान की तो बिलकुल भी नहीं थी जो छुप कर भोजन और जल ग्रहण कर ले. इस चरम स्थिति में जहां इच्छाएं जागृत नहीं रहें, जहां मनुष्य इच्छा रहित हो जाये वही तो परम स्थिति है जिसे हमारे संस्कारों में मोक्ष लिखा गया है. चमत्कारों से दूर, चमत्कारों की संभावनाओं को दर किनार करते हुए मैं अगर अपनी वैज्ञानिक दॄष्टि से सोचूँ तो भी वह इंसान जिसने अपनी इच्छाओं को शून्य कर दिया हो वह अलौकिक ही है क्योंकि मनुष्य की इच्छाएं कभी उसका दामन नहीं छोड़तीं. फिर ऐसा मनुष्य इच्छा करे भी किस वस्तु की जिसे न भोजन का सुख चाहिए , ना जल ग्रहण का, ना वार्तालाप का, जिसने खुद इन असली सुखों का परित्याग कर दिया है. मेडिकल साइंस में कई बार इलाज के लिए मेडिकली इंड्यूस्ड  कोमा का  प्रयोग किया जाता है. क्या समाधि कोई सेल्फ इंड्यूस्ड कोमा की स्थिति है?  क्या ऐसा कुछ संभव भी है?

तपस्विनी के तप करने के स्थान उनकी तपस्थली के दर्शन करने के लिए वीडियो देखें. https://youtu.be/qjRSbP2x6Sw?si=Dw67RM_kAPQcNYvI

आर के नारायण के उपन्यास पर उसी नाम गाइड के नाम से एक मूवी बनी थी जिसमें एक साधारण मनुष्य लोगों के विश्वास के दबाव में ईश्वर को प्राप्त कर लेता है. उसके अंत के शब्द मुझे हमेशा प्रभावित करते हैं “जिस जगह को देख कर परमात्मा की याद आये वो तीर्थ ही कहलाता है. और जिस आदमी को देख कर परमात्मा की याद आये वो महात्मा कहलाता है.” “सवाल अब यह नहीं कि पानी बरसेगा या नहीं, सवाल यह नहीं कि मैं जिऊँगा  या मरूंगा, सवाल ये है कि इस दुनिया को बनाने वाला, चलाने वाला कोई है या नहीं. अगर नहीं है तो कोई परवाह नहीं की जिंदगी रहे या मौत आये. एक अंधी दुनिया में अंधे की तरह जीने में कोई मतलब नहीं. और अगर है तो देखना है की वो अपने मजबूर बन्दों की सुनता है या नहीं.”  और फिर “आज मैं कितनी आजादी महसूस  कर रहा हूँ, जिस्म जैसे मांगे  करना भूल गया, मन तड़पना, तड़पाना भूल गया, जीवन जैसे आज मुट्ठी में है, मौत जैसे खेल है. लगता है जैसे आज हर इच्छा पूरी होगी पर मजा देखो आज कोई इच्छा ही नहीं रही. जिंदगी बिखर कर प्रकाश बन गयी और सच्चाई मेरा रूप है.”,  “मौत एक ख़याल है जैसे जिंदगी एक ख़याल है, ना सुख है ना दुःख है. ना इंसान है ना भगवान.”

मुझे नहीं पता कि तपस्विनी पार्वती का अवतार थीं या नहीं, मैं किसी चमत्कार की बात को भी पूर्ण रूप  से शायद ही स्वीकार करूँ।  लेकिन यह मेरा अटल विश्वास है कि तपस्विनी ने उस अवस्था को प्राप्त कर लिया था जहां इंसान और भगवान का भेद मिट जाता है, जहां इच्छाएं ख़त्म हो जाती हैं, जहां मनुष्य मनुष्य ना रह कर ईश्वर का रूप बन जाता है.  तपस्विनी के इस रूप  पर मेरा पूर्ण विश्वास है, जैसे मैं तपस्विनी को “जानता” हूँ.

– अतुल कुमार बरनवाल

05.08.2024